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अष्टत्रिंशत्तमं पर्व
पुरः कृत्वातिवीर्यस्य महीयां परमां स्तुतिम् । नर्तकीमिः कृतं कर्म चित्रमेतदहो परम् ॥२८॥ स्त्रीणां कुतोऽथवा शक्तिरीदशी विष्टपेऽखिले। जिनशासनदेवीमिनमेतदनुष्ठितम् ॥२९॥ चिन्तयनायमित्यादि सुप्रसन्नेन चेतसा । जगाम धरणीं पश्यन्नानासस्यसमाकुलाम् ॥३०॥ व्याप्ताशेषजगत्कीर्तिः प्रभावं परमं दधत् । सशत्रुघ्नो विवेशासौ विनीता परमोदयः ॥३१॥ साकं विजयसुन्दर्या तस्थौ तत्र रतिं भजन् । सुलोचनापरिष्वक्तो यथा जलदनिस्वनः ॥३२॥ आनन्दं सर्वलोकस्य कुर्वाणी रामलक्ष्मणौ । कंचित्कालं पुरे स्थित्वा पृथिवीधरभभृतः ॥३३॥ जानक्या सह संमन्य कर्तव्याहितमानसौ । भूयः प्रस्थातुमुद्युक्तौ समुद्देशमभीप्सितम् ॥३४॥ वनमाला ततोऽवोचल्लक्ष्मणं चारुलक्षणा । सवाष्पे बिभ्रती नेत्रे तरत्तरलतारके ॥३५॥ अवश्यं यदि मोक्तव्या मन्दभाग्याहकं त्वया । पुरैव रक्षिता कस्मान्ममूर्षन्ती वद प्रिय ॥३६॥ सौमित्रिरगदद् भद्रे विषादं मा गमः प्रिये । अत्यल्पेनैव कालेन पुनरेमि वरानने ॥३७॥ सम्यग्दर्शनहीना यां गतिं यान्ति सुविभ्रमे । बजेयं तां पुनः क्षिप्रं न चेदेमि तवान्तिकम् ॥३०॥ नराणां मानदग्धानां साधुनिन्दनकारिणाम् । शिये पापेन लिप्येऽहं यदि नायामि तेऽन्तिकम् ॥३९॥ रक्षितव्यं पितुर्वाक्यमस्मामिः प्राणवल्लभे । दक्षिणोदन्वतः कूलं गन्तव्यं निर्विचारणम् ॥४०॥ मलयोपस्यकां प्राप्य कृत्वा परममालयम् । नेष्यामि भवतीमेत्य वरोरु धृतिमात्रज ॥४१॥ समयैः सान्त्वयित्वेति वनमालां सुभाषितैः । भेजे लागलिनः पाश्व सुमित्राकुक्षिसंभवः॥४२॥
अतिवीर्यके सामने हमारी परम स्तुति कर उन नर्तकियोंने जो काम किया। अहो! वह बड़े आश्चर्यकी बात है ॥२८॥ अथवा समस्त संसारमें स्त्रियोंकी ऐसी शक्ति कहाँ है ? निश्चयसे यह कायं जिनशासनको देवियोंने किया है।' तदनन्तर जो नाना प्रकारके धान्यसे युक्त पृथिवीको देख रहा था, जिसकी कीर्ति समस्त संसारमें व्याप्त थी, जो परम प्रभावको धारण कर रहा था और जो उत्कृष्ट अभ्युदयसे युक्त था ऐसे भरतने शत्रुघ्नके साथ अयोध्यामें प्रवेश किया ॥२९-३१॥ वहाँ विजयसुन्दरीके साथ प्रीतिको धारण करता हुआ भरत सुलोचना सहित मेघस्वर ( जयकुमार ) के समान सुखसे रहने लगा ॥३२॥
अथानन्तर सब लोगोंको आनन्द उत्पन्न करते हुए राम-लक्ष्मण कुछ समय तक तो राजा पृथिवीधरके नगरमें रहे फिर जानकीके साथ सलाह कर आगेका कार्य निश्चित करते हुए इच्छित स्थानपर जानेके लिए उद्यत हुए ॥३३-३४।। तदनन्तर जो सुन्दर लक्षणोंसे युक्त थी और आंसुओंसे भीगे चंचल कनीनिकाओंवाले नेत्र धारण कर रही थी ऐसी वनमाला लक्ष्मणसे बोली कि हे प्रिय ! यदि मुझ मन्दभाग्याको तुम्हें अवश्य ही छोड़ना था तो पहले ही मरनेसे क्यों बचाया था सो कहो ॥३५-३६।। तब लक्ष्मणने कहा कि हे भद्रे ! हे प्रिये ! हे वरानने ! विषादको प्राप्त मत होओ। मैं बहुत ही थोड़े समय बाद फिर आ जाऊँगा ।।३७।। हे उत्तम विलासोंको धारण करनेवाली प्रिये! यदि मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास वापस न आऊँ तो सम्यग्दर्शनसे होन मनुष्य जिस गतिको प्राप्त होते हैं उसी गतिको प्राप्त हो ॥३८॥ हे प्रिये ! यदि मैं तुम्हारे पास न आऊँ तो साधुओंकी निन्दा करनेवाले अहंकारी मनुष्योंके पापसे लिप्त होऊँ ॥३९॥ हे प्राणवल्लभे! हमें पिताके वचनकी रक्षा करनी है और बिना कुछ विचार किये दक्षिण समुद्रके तट जाना है ।।४०॥ वहाँ मलयाचलको उपत्यकामें जाकर उत्तम भवन बनाऊंगा और फिर तुम्हें ले जाऊँगा। हे सुन्दर जाँघोंवाली प्रिये ! तब तक धैर्य धारण करो ।।४१।। इस प्रकार उत्तम शब्दोंसे युक्त शपथोंके द्वारा वनमालाको शान्त कर लक्ष्मण रामके पास जा पहुंचे ॥४२।। १. अयोध्याम् । २. जयकुमारः, मेघस्वर इति तस्यैवापरं नाम । ३. मलयापत्यकां म.। ४. मावत म.। ५. शपथैः । समग्रेः म.। २-२२ For Private & Personal Use Only
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