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पपुराणे ततो विषमपाषाणनिवहास्यन्तदुर्गमम् । नानागुमसमाकीर्ण कुसुमामोदवासितम् ॥१४॥ तज्ज्ञेन कथितं रम्यं पर्वतं श्वापदाकुलम् । आरुरोहावतीर्याश्वाद्विनीताकारमण्डितः ॥१५॥ रोषतोषविनिर्मुक्तं प्रशान्तकरणं विभुम् । शिलातलनिषण्णं तमेकसिंहमिवाभयम् ॥१६॥ अतिवीर्यमुनि दृष्टा सुघोरतपसि स्थितम् । शुमध्यानगतात्मानं ज्वलन्तं श्रमणश्रिया ॥१७॥ उत्फुल्लनयनो लोकः सर्वो हृष्टतनूरुहः । विस्मयं परमं प्राप्तो ननाम रचिताञ्जलिः ॥१८॥ कृत्वास्य महतीं पूजा भरतः श्रमणप्रियः । प्रणम्य पादयोरूचे भक्त्या विनतविग्रहः ॥१९॥ नाथ शूरस्त्वमेवैकः परमार्थविशारदः । येनेयं दुर्धरा दीक्षा घृता जिनवरोदिता ॥२०॥ विशुद्धकुलजातानां पुरुषाणां महात्मनाम् । ज्ञातसंसारसाराणामीदृगेव विचेष्टितम् ॥२१॥ मनुष्यलोकमासाद्य फलं यदमिवान्छयते । तदुपात्तं त्वया साधो वयमत्यन्तदुःखिनः ॥२२॥ क्षन्तव्यं दुरितं किंचिद्यदस्माभिस्त्वयीहितम् । कृतार्थोऽसि नमस्तुभ्यं प्राप्तायातिप्रतीक्ष्यताम् ॥२३॥ इत्युक्त्वा साञ्जलिं कृत्वा महासाधोः प्रदक्षिणाम् । अवतीर्णः कथां मौनी कुर्वाणो धरणीधरात् ॥२४॥ स्थूरीपृष्ठं समारुह्य पूर्यमाणः सहस्रशः। सामन्तैः प्रस्थितोऽयोध्या विभवाम्भोधिमध्यगः ॥२५॥ महासाधनसामन्तमण्डलस्यान्तरे स्थितः । शुशुभेऽसौ यधा जम्बूद्वीपोऽन्यद्वीपमध्यमः ॥२६॥ क गतास्ता नु नर्तक्यः कृतलोकानुरजनाः । स्वजीवितेऽपि विलोमा विदधुर्या मयि प्रियम् ॥२७॥
तदनन्तर जो ऊंचे-नीचे पाषाणोंके समूहसे अत्यन्त दुर्गम था, नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त था, फूलोंकी सुगन्धिसे सुवासित था, और जंगली जानवरोंसे युक्त था ऐसे जानकार सेवकोंके द्वारा बताये हुए पर्वतपर भरत चढ़ा और घोड़ेसे उतरकर विनीत वेषसे शोभित होता हुआ अतिवीर्य मुनिराजके दर्शनके लिए चला। ॥१४-१५॥ वे मुनिराज हर्ष-विषादसे रहित थे, शान्त इन्द्रियोंके धारक थे. विभ थे. शिलातलपर विराजमान थे. एक सिंहके समान निर्भय थे. घोर तपमें स्थित थे, शुभ ध्यानमें लीन थे और मुनिपनेकी लक्ष्मीसे देदीप्यमान थे ॥१६-१७।। मुनिराजके दर्शन कर सब लोगोंके नेत्र विकसित हो गये और सबके शरीरमें हर्षसे रोमांच निकल आये। सभीने परम आश्चर्यको प्राप्त हो अंजलि जोड़कर उन्हें नमस्कार किया ॥१८॥ जिसे मुनि बहुत प्रिय थे ऐसे भरतने उन मुनिराजकी बड़ी भारी पूजा की, चरणोंमें प्रणाम किया और फिर भक्तिसे नतशरीर होकर इस प्रकार कहा कि हे नाथ! जिसने यह जिनेन्द्र-प्रतिपादित कठिन दीक्षा धारण को है ऐसे एक आप ही शूरवीर हो तथा आप ही परमार्थके जाननेवाले हो ॥१९-२०॥ विशुद्ध कुलमें उत्पन्न तथा संसारके सारको जाननेवाले महापुरुषोंकी ऐसी ही चेष्टा होती है ।।२१।। मनुष्य लोक पाकर जिस फलकी इच्छा की जाती है हे साधो! वह फल आपने पा लिया पर हम अत्यन्त दुखी हैं ।।२२।। हे नाथ ! हम लोगोंसे आपके विषयमें जो कुछ अनिष्ट-पापरूप चेष्टा हुई है उसे क्षमा कीजिए। आप कृतकृत्य हैं, अतिशय पूज्यताको प्राप्त हुए आपके लिए हमारा नमस्कार है ।।२३।। इस प्रकार महामुनिराज अतिवीर्यसे कहकर तथा अंजलि सहित प्रदक्षिणा देकर उन्हींसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा करता हुआ भरत पर्वतसे नीचे उतरा ॥२४॥ तदनन्तर हजारों सामन्त जिसके साथ थे तथा जो विभवरूपी समुद्रके बीचमें गमन कर रहा था ऐसा भरत हस्तिनीके पृष्ठपर सवार हो अयोध्याके लिए वापस चला ॥२५|| बडी भारी सेना और सामन्तोंके बीचमें स्थित भरत ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अन्य द्वीपोंके मध्य में स्थित जम्बूद्वीप ही हो ॥२६।। भरत प्रसन्न चित्तसे इस प्रकार विचार करता जाता था कि जिन्होंने अपने जीवनका भी लोभ छोड़कर हमारा इष्ट किया ऐसी लोगोंको अनुरंजित करनेवाली वे नर्तकियाँ कहां गयी होंगी? ॥२७॥ राजा १. वस्थितम् म. । २. दुःखिताः म.। ३. अतिपूज्यताम् । ४. मुनिसंबन्धिनीम् । ५. हस्तिनीपृष्ठम् ।
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