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सप्तत्रिंशत्तमं पर्व
विधाय वृषभादीनां चरितस्य प्रकीर्तनम् । संक्षेपेण वशीकृत्य समितिं सकलां भृशम् ॥ ११३ ॥ संगीतेन समुद्युक्ता राजानमिति नर्तकी । दधाना परमां दीप्तिमुपालब्धुं सुदुस्सहम् ॥ ११४॥ अतिवीर्यं किमेतत्ते दुष्टं व्यवसितं महत् । नयहीनमिदं वस्तु तेनात्र त्वं नियोजितः ॥ ११५ ॥ किमिति स्वविनाशाय केकयानन्दनस्त्वया । शान्तचेताः शृगालेन केसरीव प्रकोपितः ।। ११६॥ एवं गतेऽपि बिभ्राणः परमं विनयं द्रुतम् । संप्रसादय तं गवा यदि ते जीवितं प्रियम् ॥ ११७ ॥ जाता विशुद्धवंशेषु वरक्रीडनभूमयः । माभूवन् विधवा भद्र तवैता वरयोषितः ॥११८॥ एतास्त्वया परित्यक्ता विमुक्ताशेषभूषणाः । ध्रुवं पुरा न शोभन्ते ताराचन्द्रमसा यथा ॥ ११९ ॥ निवर्तय दुतं चित्तमशुभध्यानतत्परम् । उत्तिष्ठ व्रज निर्माणो नमस्य भरतं सुधीः ॥१२०॥ एवं कुरु न चेदेवं कुरुषे पुरुषाधम । ततोऽद्यैव विनष्टोऽसि संशयोऽत्र न विद्यते ॥ १२१ ॥ जीवस्येवानरण्यस्य पौत्रे राज्यं समीहसे । चकासति रवौ पापलक्ष्मीर्दोषाकरस्य का ॥ १२२ ॥ पतितस्याद्य नो रूपे मरणं ते समुद्गतम् । शलभस्येव मूढस्य दुष्पक्षस्य प्रियद्युतेः ॥ १२३॥ देवेन भरतेनामा गरुडेन महात्मना । ' अलगदधिमो भूत्वा प्रतिस्पर्धनमिच्छति ।। १२४।। ततो निर्भर्त्सनं स्वस्य भरतस्य च शंसनम् । निशम्य संसदा साकमभूत्ताम्रेक्षणो नृपः ।। १२५ ।। विरक्ता च सभात्यन्तपरं रूक्षितमानसा । जुघूर्णार्णववेलेव तरङ्गसमाकुला ॥१२६ ॥
बात थी ऐसे अन्य मनुष्योंकी तो बात ही क्या थी ? ||११|| इस तरह संक्षेपसे ऋषभ आदि तीर्थंकरोंके चरित्रका कीर्तन कर जब उस नर्तकीने समस्त सभाको अत्यन्त वशीभूत कर लिया तब वह संगीतसे परम दीप्तिको धारण करती हुई राजाको इस प्रकारका असह्य उलाहना देनेके लिए तत्पर हुई ।। ११३ - ११४ ॥ उसने कहा कि हे अतिवीर्यं ! यह तेरी अतिशय दुष्ट चेष्टा क्या है ? तेरा यह कार्य नीतिसे रहित है, किसने तुझे इस कार्य में लगाया है ? ||११५|| जिस तरह शृगाल सिंहको कुपित करता है उस तरह तूने शान्त चित्त भरतको अपना नाश करनेके लिए इस तरह क्यों कुपित किया है ? | | ११६ || इतना सब होनेपर भी यदि तुझे अपना जीवन प्यारा है तो शीघ्र ही परम विनयको धारण करता हुआ जाकर भरतको प्रसन्न कर ॥ ११७ ॥ हे भद्र ! विशुद्ध, कुलमें उत्पन्न तथा उत्तम क्रीड़ाकी भूमिस्वरूप तेरी ये स्त्रियाँ विधवा न हों ॥। ११८|| तुझसे रहित होनेपर जिनने समस्त आभूषण छोड़ दिये हैं ऐसी ये उत्तम स्त्रियाँ चन्द्रमासे रहित ताराओंके समान निश्चित ही शोभित नहीं होंगी ॥ ११९ ॥ इसलिए अशुभ ध्यान में जानेवाले अपने चित्तको शीघ्र ही लोटा, उठ, जा और मानरहित हो भरतको नमस्कार कर । तू बुद्धिमान् है ||१२० || अतः ऐसा कर । हे अधम पुरुष ! यदि तू ऐसा नहीं करता है तो आज ही नष्ट हो जायेगा इसमें संशय नहीं है ॥ १२१ ॥ अनरण्यके पोता भरतके जीवित रहते हीं तू राज्य चाहता है सो सूर्यके देदीप्यमान रहते चन्द्रमाको क्या शोभा है ? || १२२ || जिस प्रकार कान्तिके लोभी तथा कमजोर पंखोंवाले मूर्ख शलभका मरण आ पहुँचता है उसी प्रकार हम लोगोंके रूपपर आसक्त तथा खोटे सहायकोंसे युक्त तुझ मूढ़का आज मरण आ पहुँचा है ॥ १२३ || तू जलके साँपके समान तुच्छ होकर भी गरुड़के समान जो महात्मा राजा भरत हैं उनके साथ ईर्ष्या करना चाहता है || १२४||
तदनन्तर नृत्यकारिणीके मुखसे अपना तर्जन और भरतकी प्रशंसा सुनकर राजा अतिवीर्यं सभाके साथ लाल-लाल नेत्रोंका धारक हो गया अर्थात् क्रोधवश उसके नेत्र लाल हो गये ॥ १२५ ।। जिसका मन अत्यन्त रूक्ष हो गया था, जिसका प्रेम समाप्त हो चुका था और जो भ्रकुटिरूपो तरंगों से व्याकुल थी ऐसी सारी सभा समुद्रको वेलाके समान क्षोभको प्राप्त हुई || १२६ ||
१. सन्मति म. । २. मुपलब्धुं म । ३. मान-रहितः । ४. अलगर्दो जलव्यालः । ५. परुषक्षतमानसा म. ।
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