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पद्मपुराणे
अतिवीर्यो रुषा कम्पो यावज्जग्राह सायकम् । तावदुत्पत्य नर्तक्या सविलासकृतभ्रमम् ।।१२७॥ मण्डलाग्रं समाक्षिप्य वीक्षमाणेषु राजसु । जीवग्राहं विषण्णात्मा केशेषु जगृहे दृढम् ॥१२८॥ उद्यम्य नर्तको खड्गं पश्यन्ती नृपसंहतिम् । जगादाविनयी योऽत्र स मे वध्यो विसंशयम् ।।१२९॥ परित्यज्यातिवीर्यस्य पक्षं विनयमण्डनाः । भरतस्य द्रुतं पादौ नमत प्रियजीविताः ॥१३०॥ मरतो जयति श्रीमान् गुणस्फीतांशुमण्डलः । दशस्यन्दनवंशेन्दुलॊकानन्दकरः परः ॥१३॥ लक्ष्मीकुमुदती यस्य विकासं भजते तराम् । द्विषत्तपननिर्मुक्ता कुर्वतः परमाद्भुतम् ॥१३२॥ उजगाम ततो लोकवक्त्रेभ्य इति निस्वरः । अहो वृत्तमिदं चित्रमिन्द्रजालोपमं महत् ॥१३३॥ यस्य चारणकन्यानामिदमीदग्विचेष्टितम् । भरतस्य स्वयं तस्य शक्तिः शक्रं जयेदपि ॥१३४॥ न विश्नः स किमस्माकं ऋद्धो नाथः करिष्यति । अथवा सप्रणामेषु देवो यास्यति मार्दवम् ॥१३५।। ततः करिणमारुह्य राघवः सातिवीयकः । सहितः परिवर्गेण ययौ जिनवरालयम् ॥१३६॥ अवतीर्य गजात्तत्र प्रविश्य प्रमदान्वितः । चक्रे सुमहती पूजां कृतमङ्गलनिस्वनः ॥१३७॥ वरधर्मापि सर्वेण संघेन सहितापरम् । राघवेण ससीतेन नीता तुष्टेन पूजनम् ॥१३८॥ अतिवीर्योऽत्र पभेन लक्ष्मणाय समर्पितः । तस्यासौ वधमुद्युक्तः कर्तुमौच्यत' सीतया ॥१३९॥ मावीवधोऽस्य लक्ष्मीमन् कन्धरां निष्ठुराशय । केशेषु मागृहीर्गाढं कुमारं भज सौम्यताम् ।।१४०॥ को दोषः कर्मसामर्थ्याद्यदायान्त्यापदं नराः। रक्ष्या एव तथाप्येते दधतामतिसाधुताम् ॥१४॥
क्रोधसे काँपते हुए अतिवीयंने ज्योंही तलवार उठायो त्योंही नतंकीने विलासपूर्वक विभ्रम दिखाते हुए उछलकर तलवार छीन लो और सब राजाओंके देखते-देखते अतिवीर्यको जीवित पकड़कर मजबूतीसे उसके केश बांध लिये ||१२७-१२८॥ नतंकीने तलवार उठाकर राजाओंकी ओर देखते हुए कहा कि यहां जो भी अविनय करेगा वह निःसन्देह मेरे द्वारा होगा ॥१२९।। यदि आप लोगोंको अपना जीवन प्यारा है तो अतिवीर्यका पक्ष छोड़कर विनयरूपो आभूषणसे युक्त हो शीघ्र ही भरतके चरणोंमें नमस्कार करो ॥१३०॥ जो लक्ष्मीसे युक्त है, गुण ही जिसकी विस्तृत किरणोंका समूह है, जो लोगोंको परम आनन्दका देनेवाला है, जिसकी लक्ष्मीरूपी कुमुदिनी शत्रुरूपी सूर्यसे निर्मुक्त होकर परम विकासको प्राप्त हो रही है तथा जो अत्यन्त आश्चर्यजनक कार्य कर रहा है ऐसा दशरथके वंशका चन्द्रमा भरत जयवन्त है ॥१३१--१३२॥
तदनन्तर लोगोंके मुखसे इस प्रकारके शब्द निकलने लगे कि अहो! यह बड़ा आश्चर्य है, यह तो बहुत भारी इन्द्रजालके समान है ।।१३३।। जिसकी नृत्यकारिणियोंकी यह ऐसी चेष्टा है उस भरतकी शक्तिका क्या ठिकाना ? वह तो इन्द्रको भी जीत लेगा ॥१३४।। न जाने वह राजा भरत कपित होकर हमारा क्या करेगा? अथवा प्रणाम करनेवालोंपर वह अवश्य ही मार्दवभावको प्राप्त होगा ॥१३५।। तदनन्तर राम अतिवीर्यको पकड़ हाथीपर सवार हो अपने परिजनके साथ जिनमन्दिर गये ॥१३६॥ वहां उन्होंने हाथीसे उतरकर बड़े हर्षसे मन्दिरके भीतर प्रवेश किया
और मंगलमय शब्दोंका उच्चारण कर बड़ी भारी पूजा की ।।१३७।। मन्दिर में सर्वसंघके साथ जो वरधर्मा नामकी गणिनी ठहरी हुई थीं रामने सीताके साथ सन्तुष्ट होकर उनकी भी उत्तम पूजा की ॥१३८|यहाँ रामने अतिवीर्यको लक्ष्मणके लिए सौंप दिया और वे उसका वध करनेके लिए उद्यत हुए तब सीताने कहा कि हे लक्ष्मीधर ! निष्ठुर अभिप्रायके धारी हो इसकी ग्रीवा मत छेदो और न जोरसे इसके केश ही पकड़ो। हे कुमार ! सौम्यताको प्राप्त होओ ॥१३९-१४०|| इस बेचारेका क्या दोष है ? यद्यपि मनुष्य कर्मोकी सामयंसे आपत्तिको प्राप्त होते हैं तथापि सज्जनताको धारण करनेवाले मनुष्य उनकी रक्षा ही करते हैं ॥१४१।। १. सहितः म. । २. भणितं । ३. साधुना म. ।
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