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सप्तत्रिंशत्तमं पर्व वृष्ट्वा कलिङ्गराजस्तान् गाढशल्यान् बहून्नृपान् । जीवेन च विनिर्मुक्तान हृतं ज्ञास्वा च साधनम् ।।८।। संप्राप्तः परमं क्रोधमप्रमत्तः समन्ततः । वैरिनिर्यातनं कृत्वा बुद्धौ रणमुदीक्ष्यते ॥८७॥ दण्डोपायं परित्यज्य भरतो मानिनां वरः । हेतं तमिर्जये नान्यं प्रयुक्त बुद्धिमानपि ॥८८॥ अथ त्वं साधयस्येयं केनैतन्न प्रतीयते । शक्तिस्ते प्रभवेत्तात तीवांशोरपि यातने ॥८९।। किंवयं वर्ततेऽत्रैव प्रदेश भरतोऽधुना । निर्गस्य च तथायुक्तं प्रकटीकरणं ननु ॥१०॥ अज्ञाता एव ये कार्य कुर्वन्ति पुरुषाद्भुतम् । तेऽतिश्लाघ्या यथास्यन्तं निवृष्य जलदा गताः ॥९॥ इति मन्त्रयमाणस्य रामस्य मतिरुद्गता । अतिवीर्यग्रहोपाये ततो मन्त्रः समापितः ॥१२॥ प्रमादरहितस्तत्र कृतप्रवरसंकथः । सुखेन शर्वरी नीत्वा रामः स्वजनसंगतः ॥१३॥ आवासान्निर्गतोऽपश्यदार्यिकाजनलक्षितम् । जिनेन्द्रमवनं मक्त्या प्रविवेश च साञ्जलिः ॥९॥ नमस्कारं जिनेन्द्राणां विधायार्याजनस्य च । सकाशे वरधर्माया गणपाल्याः सशस्त्रिकाम् ॥९५।। स्थापयित्वा कृती सीतां कृत्वात्मानं च 'वर्णिनीम् । स्त्रीवेषधारिभिः साध सुरूपैर्लक्ष्मणादिभिः ॥१६॥ कृत्वा पूजां जिनेन्द्राणां बहुमङ्गलभूषिताम् । नरेन्द्रभवनद्वारं प्रतस्थे लीलयान्वितः ॥१७॥ सुरेन्द्रगणिकातुल्यं वीक्ष्य तं वर्णिनी जनम् । सर्वः पौरजनो लग्नः पश्चाद्गन्तं सविस्मयः ॥९॥ सर्वलोकस्य नेत्राणि मनांसि च सुचेष्टिताः । हरन्त्यस्ता नृपागारं प्राप्ता द्वारि सुमण्डनाः ॥९९।।
कलिंगाधिपति अतिवीर्यने जब देखा कि बहुत-से राजाओंको गहरी शल्य लगी हुई है तथा कितने ही राजा निष्प्राण हो गये हैं और साथ ही बहुत-सी सेनाका अपहरण हुआ है तब वह परम क्रोधको प्राप्त हुआ। अब वह सब ओरसे सावधान है और बुद्धिमें वैरीसे बदला लेनेका विचार कर रणकी प्रतीक्षा कर रहा है ।।८६-८७|| भरत मानियों में श्रेष्ठ है तथा बुद्धिमान् भी इसलिए वह उसके जीतने में एक युद्धरूपी उपायको छोड़कर अन्य उपाय प्रयोगमें नहीं लाना चाहता ॥८८॥ यद्यपि तुम इसे ठीक कर सकते हो यह किसे प्रतीत नहीं है ? अथवा हे तात ! इसकी बात जाने दो तुझमें तो सूर्यको भी गिरानेकी शक्ति है किन्तु भरत इसी प्रदेशमें विद्यमान है अर्थात् यहाँसे बहुत ही निकट है सो इस समय उस तरह अयोध्यासे निकलकर प्रकट होना उचित नहीं है ।।८९-९०॥ जो लोग अज्ञात रहकर मनुष्योंको आश्चर्यमें डाल देनेवाला भारी उपकार करते हैं वे चुपचाप बरसकर गये हुए रात्रिके मेघोंके समान अत्यन्त प्रशंसनीय हैं ॥९॥ इस प्रकार सलाह करते-करते रामको, अतिवीर्यके वश करनेका उपाय सुझ आया और उसके बाद सलाहका काम समाप्त हो गया ॥२२॥
अथानन्तर आत्मीयजनोंके साथ मिले हुए रामने, प्रमादरहित हो उत्तमोत्तम कथाएँ कहते हुए सुखसे रात्रि व्यतीत की ॥९३॥ दूसरे दिन डेरेसे निकलकर रामने आर्यिकाओंसे सहित जिनमन्दिर देखा सो हाथ जोड़कर बड़ी भक्तिसे उसमें प्रवेश किया ॥९४|| भीतर प्रवेश कर जिनेन्द्र भगवान् तथा आर्यिकाओंको नमस्कार किया। वहां आर्यिकाओंकी जो वरधर्मा नामकी गणिनी थी उसके पास सीताको रखा तथा सीताके पास ही अपने सब शस्त्र छोड़े। तदनन्तर अतिशय चतुर रामने अपने आपका नृत्यकारिणीका वेश बनाया और साथ ही अत्यन्त सुन्दर रूपको धारण करनेवाले लक्ष्मण आदिने भी स्त्रियोंके वेष धारण किये ॥९५-९६।। तत्पश्चात् जिनेन्द्र भगवान्की मंगलमयी पूजा कर सब लोगोंके साथ रामने लीलापूर्वक राजमहलके द्वारकी ओर प्रस्थान किया ॥९७॥ इन्द्रनतंकीकी तुलना करनेवाली उन नतंकियोंको देखकर आश्चर्यसे भरे समस्त नगरवासी उनके पीछे लग गये ॥९८॥ तदनन्तर उत्तम चेष्टाओं और सुन्दर आभूषणोंको धारण करनेवाली वे नृत्यकारिणी सब लोगोंके नेत्र और मनको हरती हुई राजमहलके द्वारपर पहुंचीं ॥१९॥
१. नृत्यकारिणीम् । २. तुल्यं वीक्षितुं वणिनों जनः म. ।
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