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सप्तत्रिंशत्तम पर्व युक्तमेवातिवीर्यस्य भरते कर्तुमीदृशम् । पितुर्यन समो भ्राता ज्येष्ठोऽसावपमानितः ॥५६॥ आगच्छाम्यहमित्युक्त्वा लेखवाह महीधरः । प्रतिप्रेष्याकरोन्मन्त्रं रामेण पृथिवीधरः ॥५७।। अतिवीर्योऽतिदुर्वारश्छद्मना तं व्रजाम्यहम् । एवं महीधरेणोक्त पद्यो विश्रब्धमब्रवीत् ॥५८॥ अज्ञातैरिदमस्मामिः साधनीयं प्रयोजनम् । ततो न महता कृत्यं संरम्भेण तु पार्थिवः ॥५१॥ तिष्ठ स्वमिह कुर्वाणः सुप्रयुक्तमहं तव । पुत्रजामातृमिः सार्धमन्तं तस्य व्रजाम्यरेः ॥१०॥ इत्युक्त्वा रथमारुह्य परं सारबलान्वितः । महीधरसतेः साकं ससीतो लक्ष्मणान्वितः ।।६।। नन्द्यावर्तपुरी रामो गन्तं प्रववृते जवी । प्राप्तश्चावस्थितस्तस्य पुरस्य निकटेऽन्तरे ॥६॥ तनुकृत्ये कृते तत्र संबन्धितनयैः सह । रामलक्ष्मणयोमन्त्रः सीतायाश्चेत्यवर्तत ॥६३॥ जगाद जानकी नाथ भवतः सन्निधौ मम । वक्तं नैवाधिकारोऽस्ति किं तारा शान्ति भास्करे ॥६॥ तथापि देव भाषेऽहं प्रेरिता हितकाम्यया । जातो वंशलतातोऽपि मणिः संगृह्यते ननु ॥६५॥ अतिवीर्योऽतिवीर्योऽयं महासाधनसंगतः । क्ररकर्मा कथं शक्यो जेतं मरतभूभृता ॥६६॥ अंतस्तग्निर्जये तावदुपायाश्चिन्त्यतां द्रुतम् । सहसारभ्यमाणं हि कार्य व्रजति संशयम् ॥६॥ त्रिलोकेऽप्यस्ति नासाध्यं भवतो लक्ष्मणस्य वा । किंतु प्रस्तुतमत्यक्त्वा समारब्धं प्रशस्यते ॥६॥ ततो लक्ष्मीधरोऽवोचत्किमेवं देवि भाषसे । पश्य श्वो निहितं पापमणुवीयं मया रणे ॥१९॥
रामपादरजःपूतशिरसो मे सुरैरपि । न शक्यते पुरः स्थातुं क्षुद्रवीर्ये तु का कथा ॥७॥ वाले रामने वनमालाके पिता राजा पृथिवीधरको संकेत कर स्वेच्छानुसार कहा कि जिसने पिताके समान बड़े भाईको अपमानित किया है ऐसे भरतपर अतिवीर्यका ऐसा करना उचित ही है ।।५५-५६|| तदनन्तर 'मैं अभी आता हूँ' इस प्रकार कहकर राजा पृथिवीधरने दूतको तो विदा किया और रामके साथ बैठकर इस प्रकार सलाह की कि 'अतिवीर्यका निराकरण करना सरल नहीं है इसलिए मैं छलसे जाता हूँ' । राजा पृथिवीधरके इस प्रकार कहनेपर रामने विश्वासपूर्वक कहा कि हम लोगोंको यह कार्य अज्ञात रूपसे चुपचाप करना योग्य है अतः हे राजन् ! बड़े आडम्बरकी आवश्यकता नहीं है ॥५७-५९॥ आप सुचारु रूपसे अपना काम करते हुए यहीं रहिए मैं आपके पुत्र तथा जंवाईके साथ शत्रुके सम्मुख जाता है॥६०|| इस प्रकार कहकर राम, लक्ष्मण और सीताके साथ रथपर सवार हो श्रेष्ठ सेना सहित राजा पृथिवीधरके पुत्रोंको साथ ले नन्द्यावतंपुरीकी ओर चले तथा वेगसे चलकर नगरीके निकट जाकर ठहर गये ॥६१-६२।। वहां स्नान, भोजन आदि शरीर सम्बन्धी कार्य कर चुकनेके बाद राम, लक्ष्मण तथा सीताकी पृथिवीधरके पुत्रोंके साथ निम्न प्रकार सलाह हुई ॥६३।। सलाहके बीच सीताने रामसे कहा कि हे नाथ ! यद्यपि आपके समीप मुझे कहनेका अधिकार नहीं है क्योंकि सूर्यके रहते हुए क्या तारा शोभा देते हैं ? ॥६४|| तथापि हे देव ! हितको इच्छासे प्रेरित हो कुछ कह रही हूँ सो ठीक ही है क्योंकि वंशकी लतासे उत्पन्न हुआ मणि भी तो ग्राह्य होता है ॥६५॥ सीताने कहा कि यह अतिवीर्य, अत्यन्त बलवान्, बड़ी भारी सेनासे सहित तथा क्रूरतापूर्ण कार्य करनेवाला है सो भरतके द्वारा कैसे जीता जा सकता है ? ॥६६।। अतः शीघ्र ही उसके जीतनेका उपाय सोचिए क्योंकि सहसा प्रारम्भ किया हुआ कार्य संशयमें पड़ जाता है ॥६७|| यद्यपि तीन लोकमें भी ऐसा कार्य नहीं है जो आप तथा लक्ष्मणके असाध्य हो किन्तु जो कार्य प्रकृत कार्यको न छोड़कर प्रारम्भ किया जाता है वही प्रशंसनीय होता है ।।६८|| तदनन्तर लक्ष्मणने कहा कि हे देवि! ऐसा क्यों कहती हो, तुम कल ही अणुवीयं ( अतिवीर्य) को रणमें मेरे द्वारा मरा हुआ देख लेना ।।६९॥ रामकी चरण-धूलिसे जिसका शिर पवित्र है ऐसे मेरे सामने देव भी खड़े होनेके लिए समर्थ नहीं हैं फिर अणुवीर्यकी तो
१. अतस्तं निर्जये म.।
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