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सप्तत्रिंशत्तम पर्व अतिवीय तथाबुद्धौ भरतस्य विचेष्टितम् । तव कीदृगिति ज्ञातं 'भद्रस्य दूतस्य ते ॥२८॥ एवं वायुगतिः पृष्टो जगाद निखिलं मम । विदितं राजचरितमन्तरङ्गो ह्ययं परः ॥२९॥ इच्छामि विशदं श्रोतुमित्युक्ते पुनरब्रवीत् । शृणु चित्तं समाधाय भवतश्चेत्कुतूहलम् ॥३०॥ श्रुतबुद्धिरिति ख्यातो दूतः श्रुतविशारदः । प्रहितः स्वामिनास्माकं गत्वा भरतमब्रवीत् ॥३॥ दूतोऽस्मि शक्रतुल्यस्य प्रणताखिलभूभृतः । अतिवीर्य नरेन्द्रस्य नयन्यासमनीषिणः ॥३२॥ संप्राप्य साध्वसं यस्मान्नरकेसरिणः परम् । भजन्ते रिपुसारङ्गा न निद्रा वसतिष्वपि ॥३३॥ विनीता पृथिवी यस्य चतुरम्भोधिमेखला । आज्ञा पाणिगृहीतेव कुरुते परिपालिता ॥३४॥ आज्ञापयत्यसौ देवो भवन्तमिति सस्क्रियः । वर्णर्मदास्यविन्यस्तैर्जितात्मा समन्ततः ॥३५॥ यथा मज समागस्य भृस्यतां भरत द्रुतम् । अयोध्यां वा परित्यज्य भज पारमुदन्वतः ॥३६॥ ततः क्रोधपरीताङ्गः शत्रुघ्नश्चण्डया गिरा। जगाद निष्प्रतीकारो दावानल इवोत्थितः ॥३७॥ भजत्येव तथा देवो भरतस्तस्य भृत्यताम् । यथा संजायते युक्तमिदं तावत्प्रभाषितम् ॥३८॥ विनीतां च परित्यज्य सचिवेषु प्रभुधुवम् । यात्येवोदेन्वतः पारं वशीकुर्वन् कुमानवान् ॥३९॥ वचस्त्वां ज्ञापयामीति नितरां तस्य नोचितम् । रासभस्य यथा मत्तवारणधिपगर्जितम् ॥४०॥ सूचयस्यथवा तस्य मृत्युमेतद्वचः स्फुटम् । उत्पातभूतमेतो वा स नूनं वायुवश्यताम् ॥४१॥
जबतक कुछ नहीं कह पाये कि तबतक उसके पहले ही लक्ष्मण ने कहा कि हे भद्र ! हे समीचीन बुद्धिके धारक दूत ! तुझे मालूम है कि राजा अतिवीर्यके उस तरह रुष्ट होने में भरतकी कैसी चेष्टा कारण है अर्थात् अतिवीर्य और भरतमें विरोध होनेका क्या कारण है ? ॥२७-२८॥ इस प्रकार लक्ष्म नेपर उस वायगति नामक दतने कहा कि मैं चूँकि राजाका अत्यन्त अन्तरंग व्यक्ति हैं अतः मुझे सब मालम है ॥२९॥ इसके उत्तर में लक्ष्मणने कहा कि तो मैं सुनना चाहता है। इस प्रकार कहे जानेपर वायुगति दूत बोला कि यदि आपको कुतूहल है तो चित्त स्थिर कर सुनिए मैं कहता हूँ ॥३०॥ उसने कहा कि एक बार हमारे राजा अतिवीर्यने श्रुतबुद्धि नामका निपुण दूत भरतके पास भेजा, सो उसने जाकर भरतसे कहा कि जो इन्द्रके समान पराक्रमी है। जिसे समस्त राजा नमस्कार करते हैं तथा जो नयके प्रयोग करने में अत्यन्त निपुण है ऐसे राजा अतिवीर्यका मैं दूत हूँ॥३१-३२।। जो मनुष्योंमें सिंहके समान है तथा जिससे भयभीत होकर शत्रुरूप मृग अपनी वसतिकाओंमें निद्राको प्राप्त नहीं होते ॥३३॥ चार समुद्र ही जिसकी कटिमेखला है, ऐसी समस्त पृथिवी स्त्रीके समान बड़ी विनयसे जिसको आज्ञाका पालन करती है, जो उत्तम क्रियाओंका आचरण करनेवाला है तथा सब ओरसे जिसकी आत्मा अत्यन्त बलिष्ठ है. ऐसे राजा पथिवीपर मेरे मुख में स्थापित किये हुए अक्षरोंसे आपको आज्ञा देते हैं कि हे भरत ! तू शीघ्र ही आकर मेरी दासता स्वीकृत कर अथवा अयोध्या छोड़कर समुद्रके उस पार भाग जा ॥३४-३६॥
तदनन्तर जिसका शरीर क्रोधसे व्याप्त हो रहा था तथा उठी हुई दावानलके समान जिसका प्रतिकार करना कठिन था ऐसा शत्रुघ्न तीक्ष्ण वाणीसे बोला कि अरे दूत ! राजा भरत उसकी भृत्यताको उस तरह अभी हाल स्वीकृत करते हैं कि जिस तरह उसका यह कहना ठीक सिद्ध हो जाय ? अयोध्या छोड़नेकी बात कही सो अभ्युदयको धारण करनेवाले राजा भरत अयोध्याको मन्त्रियोंपर छोड़ क्षुद्र मनुष्योंको वश करनेके लिए अभी हाल समुद्रके पार जाते हैं ॥३७-३९।। परन्तु मैं तुझसे कह रहा हूँ कि जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथीके प्रति गधेकी गर्जना उचित नहीं जान पड़ती, उसी प्रकार भरतके प्रति तेरे स्वामीकी यह गर्जना बिलकुल ही उचित नहीं है ।।४।। अथवा उसके यह वचन स्पष्ट ही उसकी मृत्युको सूचित करते हैं । जान पड़ता है कि वह उत्पातरूपी
१. भद्रास्य दूत सन्मते ज. । भद्रस्य इतस्य ते म. (?) । २. यात्येवोन्नतः म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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