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पपुराणे वैराग्यादथवा ताते तपोवनमुपागते । नरेन्द्रेण समाविष्टो ग्रहेण खलवेष्टितः ॥४२॥ यद्यप्युपशमं यातस्ताताग्निमुक्तिकाम्यया । तथापि निर्गतस्तस्मात्स्फुलिङ्गस्तं दहाम्यहम् ॥४३॥ सिंहे करीन्द्रकोलालपङ्कलोहितकेसरे । शान्तेऽपि शावकस्तस्य कुरुते करिपातनम् ॥४॥ इत्युक्त्वा दह्यमानोरुवेणुकान्तारभीषणम् । जहास तेजसास्थानं असमानः इवाखिलम् ॥४५॥ जगाद च कुदूतस्य तावदस्य विधीयताम् । खलीकारोऽल्पवीर्यस्य सत्यंकार इव द्रुतम् ॥४६॥ इत्युक्त पादयोदूं तो गृहीत्वा कुपितै टैः । सारमेय इवागस्वी हन्यमानः कृतध्वनिः ॥४७॥ आकृष्टो नगरीमध्यं यावन्मुक्तश्च दुःखितः । दग्धो दुर्वचनैधूलीधूसरो निरगात्ततः ॥४८॥ ततः सागरगम्भीरः परमार्थविशारदः । अपूर्व दुर्वचः श्रुत्वा किंचित्कोपमुपागतः ।।४९।। केकयानन्दनः श्रीमान्सुप्रमानन्दनान्वितः । विनिनोपुररिं पुर्या निर्यातः सचिवान्वितः ॥५०॥ श्रुत्वा तं मिथिलाधीशः कनकः पुरुसाधनः । प्राप सिंहोदराद्याश्च राजानो भक्तितत्पराः ॥५१॥ चक्रेण महता युक्तो भरतः प्रस्थितस्ततः । नन्द्यावत प्रजा रक्षन् पितेव न्यायकोविदः ॥५२॥ अतिवीर्योऽपि दूतेन खलीकारप्रदर्शिना । परमं क्रोधमानीतः क्षुब्धाकूपारमीषणः ॥५३॥ मरतायाग्निरोचिष्णुर्गन्तुं संविदधे मतिम् । सामन्तवेष्टितः सर्वैः कृतानेकमहामृतः ॥५४॥ ततो ललाटमागेन युवचन्द्राकृतिं श्रितः । वनमालापितुः संज्ञां कृत्वा स्वैरं बलोऽवदत् ॥५५॥
भूतसे ग्रस्त है अथवा वायुरोगके वशीभूत है ॥४१॥ अथवा वैराग्यके योगसे पिता राजा दशरथके तपोवनके लिए चले जानेपर दुष्टोंसे घिरा तुम्हारा राजा ग्रहसे आक्रान्त हो गया है ॥४२॥ यद्यपि मोक्षकी आकांक्षासे पितारूपी अग्नि शान्त हो चुकी है तथापि मैं उस अग्निसे निकला हुआ एक तिलगा हूँ, सो तेरे राजाको अभी भस्म करता हूँ ।।४३।। बड़े-बड़े हाथियोंके रुधिररूपी पंकसे जिसकी गरदनके बाल लाल हो रहे थे ऐसे सिंहके शान्त हो जानेपर भी उसका बच्चा हाथियोंका विघात करता ही है ।।४४॥ इस प्रकार जलते हुए बांसोंके बड़े वनके समान भयंकर वचन कहकर तेजसे समस्त सभाको ग्रसता हुआ शत्रुघ्न जोरसे हँसा ॥४५॥ और बोला कि बयानेके समान अल्पवीयं (अतिवीर्य) के इस कुदुतका तिरस्कार शीघ्र ही किया जाये ॥४६॥ शत्रुके इस प्रकार कहते हो क्रोधसे भरे योद्धाओंने उस दूतके दोनों पैर पकड़कर उसे घसीटना शुरू किया जिससे वह पीटे जानेवाले अपराधी कुत्तेके समान काय-काय करने लगा ॥४७॥ इस तरह नगरीके मध्य तक घसीटकर उसे छोड़ दिया। तदनन्तर दुःखी दुर्वचनोंसे जला और धूलिसे धूसर हुआ वह दूत वहाँसे चला गया ॥४८॥
तदनन्तर जो समुद्रके समान गम्भीर थे, परमार्थके जाननेवाले थे तथा जो दूतके पूर्वोक्त अपूर्व वचन सुनकर कुछ क्रोधको प्राप्त हुए थे ऐसे श्रीमान् राजा भरत, शत्रुघ्न भाई और मन्त्रियोंको साथ ले. शत्रका प्रतिकार करनेके लिए नगरोसे बाहर निकले ॥४९-५०। वह सुनकर मिथिलाका राजा कनक बड़ी भारी सेना लेकर भरतसे आ मिला तथा भक्तिमें तत्पर रहनेवाले सिंहोदर आदि राजा भी आ पहुँचे ।।११।। इस प्रकार जो पिताके समान प्रजाकी रक्षा करते थे, तथा जो न्याय-नीतिमें निपुण थे ऐसे राजा भरत बड़ी भारी सेनासे युक्त हो नन्द्यावर्त नगरकी ओर चले ॥५२॥
उधर अपने अपमानको दिखानेवाले दूतने जिसे अत्यन्त कुपित कर दिया था, जो क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रके समान भयंकर था, जो अग्निके समान दमक रहा था तथा अनेक बड़े-बड़े आश्चर्यपूर्ण कार्य करनेवाले सामन्त जिसे घेरे थे ऐसे राजा अतिवीर्यने भी भरतके प्रति चढ़ाई करनेका निश्चय किया ॥५३-५४॥ तदनन्तर ललाटसे तरुण चन्द्रमाको आकृतिके धारण करने
१. नरेन्द्रशा समाविष्टो नरेन्द्रो स समा म., ज.। २. अपराधी । ३. कृति : श्रितः म. ।
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