________________
१५२
पपपुराणे ततः प्रबुद्धचित्तेन परं प्रमदमीयुषा । दत्तं बहुधनं तेभ्यः स्मितशुक्लमुखेन्दुना ॥७६।। अचिन्तयच्च ही साधु संजातं दुहितुर्मम । अनिश्चितगतिः प्राप्तो यदयं सुमनोरथः ॥७॥ सर्वेषामेव जीवानां धनमिष्टसमागमः । जायते पुण्ययोगेन यच्चारमसुखकारणम् ॥७८॥ योजनानां शतेनापि परिच्छिके श्रुतान्तरे । इष्टो मुहूर्तमात्रेण लभ्यते पुण्यमागिमिः ॥७९॥ ये पुण्येन विनिर्मुक्ताः प्राणिनो दुःखमागिनः । तेषां हस्तमपि प्राप्तमिष्टवस्तु पलायते ॥८॥ अरण्यानां गिरे नि विषमे पथि सागरे । जायन्ते पुण्ययुक्तानां प्राणिनामिष्टसंगमाः ॥८॥ इति संचिन्त्य जायायै तं वृत्तान्तमशेषतः । उत्थाप्याकथयत्तोषादक्षः कृच्छनिर्गतैः ॥८२॥ पुनः पुनरपृच्छत् सा सुमुखी स्वप्नशङ्कया। संजातनिश्चयादाप स्वसंवेद्यां सुखासिकाम् ।।८३॥ ततो रामाधरच्छाये समुपति दिवाकरे । प्रेमसंपूरितो राजा सर्वबान्धवसंगतः ॥८४॥॥ वरवारणमारुह्य धुत्या परमया युतः। प्रतस्थे परमं द्रष्टुमुस्सुकः प्रियसंगमम् ॥४५॥ माता च वनमालायाः पुत्रैरष्टामिरन्विता । आरुह्य शिविका रम्या प्रियस्य पदवीं श्रिता ॥८६॥ अनन्तरं नृपादेशात् कशिपुः प्रचुरं हितम् । गन्धमाल्यादिवाशेषमनीयत मनोहरम् ॥८७॥ ततो दूरात् समालोक्य संफुल्लक्षणपक्रजम् । अवतीर्य गजाद राजा दुढौके राममादरी ॥८॥ परिष्वज्य महाप्रीत्या सहितं लक्ष्मणेन तम् । अपृच्छत् कुशलं कृष्टिर्जानकी च सुमानसः ॥८॥
mammmmmm
mmmmmmmmmmmm
रेकसे क्षण-भरके लिए मूच्छित हो गया ॥७५।। तदनन्तर सचेत होनेपर जो परम हर्षको प्राप्त था तथा जिसका मुखरूपी चन्द्रमा मन्द मुसकानसे धवल हो रहा था ऐसे राजाने उन भृत्योंके लिए बहुत भारी धन दिया ॥७६।। वह विचार करने लगा कि अहो, मेरी पुत्रीका बड़ा भाग्य है कि जिससे उसका यह अनिश्चित मनोरथ स्वयं ही पूर्ण हो गया ॥७७॥ समस्त जीवोंको धन, इष्टका समागम तथा जो भी आत्म-सुखका कारण है वह सब पुण्य योगसे प्राप्त होता है ।।७८|| जिसके बीचमें सौ योजनका भी अन्तर प्रसिद्ध है वह इष्ट वस्तु पुण्यात्मा जीवोंको मुहर्तमात्रमें प्राप्त हो जाती है ।।७९|| इसके विपरीत जो प्राणी पुण्यसे रहित हैं वे निरन्तर दुखी रहते हैं तथा उनके हाथमें आयी हुई भी इष्ट वस्तु दूर हो जाती है ।।८०॥ अटवियोंके बीचमें, पहाड़की चोटीपर विषम मार्ग तथा समुद्रके मध्य में भी पुण्यशाली मनुष्योंको इष्ट समागम प्राप्त होते रहते हैं ॥८१।। इस प्रकार विचारकर उसने स्त्रीको उठाया और उसके लिए हर्षातिरेकके कारण कष्टसे निकलनेवाले वचनोंके द्वारा सब समाचार कहा ।।८२।। उस सुमुखीने 'कहीं स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ' इस आशंकासे बार-बार पूछा और उत्पन्न हुए निश्चयसे वह स्वसंवेद्य सुखको प्राप्त हुई ॥८३॥
तदनन्तर जब स्त्रीके ओठके समान लाल-लाल कान्तिको धारण करनेवाला सूर्य उदित हो रहा था तब प्रेमसे भरा, सर्व बन्धुजनोंसे सहित, परम कान्तिसे युक्त और परम प्रिय समागम देखनेके लिए उत्सुक राजा पृथिवीधर उत्तम हाथीपर सवार हो चला ॥८४-८५|| आठों पुत्रोंसे सहित वनमालाको माता भी मनोहर पालकीपर सवार हो पतिके मार्ग में चली ।।८।। इसके पीछे राजाकी आज्ञानुसार सेवकोंके द्वारा अत्यधिक हितकारी वस्त्र तथा गन्ध, माला आदि समस्त मनोहर पदार्थ ले जाये जा रहे थे ।।८७||
तदनन्तर दूरसे ही विकसित नेत्रकमलोंके धारी रामको देखकर राजा पृथिवीधर हाथोसे उतरकर आदरके साथ उनके पास पहुँचा ||८८|| तत्पश्चात् विधि-विधानके वेत्ता तथा शुद्धहृदयके धारक राजाने बड़े प्रेमसे राम-लक्ष्मणका आलिंगन कर उनसे तथा सीतासे कुशल समा
१. विधिवेदो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org