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शतपर्व
"तद्देष्यपि तयोः पृष्ट्वा क्षेमं सुस्निग्धलोचना । निखिलाचारनिष्णाता जानकीं परिषस्वजे ॥९०॥ उपचारो यथायोग्यं तयोस्तैरपि निर्मितः । आचार्यकं हिते? याता वस्तुन्यत्र प्रतिष्ठितम् ॥९१॥ atraणुमृदङ्गादिसहितो गीतनिःस्वनः । क्षुब्धार्णवसमो जज्ञे वन्दिवृन्दानुनादितः ॥ ९२ ॥ उत्सवः स महाञ्जातः पूजिताखिलसंगतः । नृत्यलोकक्रमन्यासादतिकम्पितभूतलः ॥ ९३ ॥ दिशस्तूर्यनिनादेन प्रतिशब्दसमन्विताः । चक्रुः परस्परालापमिव संमद निर्मराः ॥९४॥ शनैः प्रसन्नतां याते तस्मिन्नथ महोत्सवे । शरीरकर्म तैः सर्वं कृतं स्नानाशनादिकम् ||१५|| ततः सप्तिद्विपारूढं सामन्त शतवेष्टितौ । सारङ्गोपमपादातमहाचक्रपरिच्छदौ ॥ ९६ ॥ पुरःप्रवृत्तसोत्साह राजस्थपृथिवीधरौ । विदुग्धसूतलोकेन कृतमङ्गलनिस्वनौ ॥ ९७ ॥ हारराजितवक्षस्कावनघ शुकधारिणौ । हरिचन्दनदिग्धाङ्गावारूढौ रथमुत्तमम् ॥९८ ॥ नानारत्नांशु संपर्कसमुद्भूतेन्द्र कार्मुकौ । शशाङ्कभास्कराकारावशक्यगुणवर्णनौ ॥९९॥ सौशानदेवामी जानकीसहितौ पुरम् । कुर्वाणौ विस्मयं तुङ्गं प्रविष्टौ रामलक्ष्मणौ ॥१००॥ वरमालाधरौ गन्धबद्धषट्पदमण्डलौ । संपूर्णचन्द्रवदनौ विनीताकारधारिणौ ॥ १०१ ॥ यक्षेणेव कृते तस्मिल्लकामे पुटभेदने । रेमाते परमं भोगं भुजानौ निजयेच्छया ॥१०२॥
चार पूछा || ८९ || जिसके नेत्रोंसे स्नेह टपक रहा था तथा जो सब प्रकारका आचार जानने में निपुण थी ऐसी रानीने भी राम-लक्ष्मणसे कुशल पूछकर सीताका आलिंगन किया ||१०|| उन सबने भी राजा-रानीका यथायोग्य सत्कार किया सो ठीक ही है क्योंकि वे इस विषय में अतिशय निपुणता को प्राप्त ॥ ९१ ॥
तदनन्तर जो वीणा, बांसुरी, मृदंग आदिके शब्दसे सहित था, जो क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रकी तुलना धारण कर रहा था और जिसमें वन्दीजनोंके द्वारा उच्चारित विरुदावलीका नाद गूँज रहा था ऐसा संगीतका शब्द होने लगा ||१२|| जिसमें आये हुए समस्त इष्टजनोंका सत्कार हो रहा था, तथा नृत्य करनेवाले मनुष्योंके चरण निक्षेपसे जिसमें भूतल काँप रहा था ऐसा वह महान् उत्सव सम्पन्न हुआ ||२३|| तुरहीके शब्दसे जिनमें प्रतिध्वनि गूँज रही थी ऐसी दिशाएँ हर्षसे ओत-प्रोत हो मानो परस्पर वार्तालाप ही कर रही थीं ॥ ९४ ॥ अथानन्तर धीरे-धीरे जब वह महोत्सव शान्त हुआ तब उन्होंने स्नान, भोजन आदि शरीर सम्बन्धी सब कार्यं किये ||१५||
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तदनन्तर जो हाथी-घोड़ोंपर बैठे हुए सैकड़ों सामन्तोंसे घिरे थे, मृगतुल्य पैदल सिपाहियोंका बड़ा दल जिनके साथ था, उत्साहसे भरा राजा पृथिवीधर जिनके आगे-आगे चल रहा था, चतुर वन्दीजन जिनके आगे मंगल ध्वनि कर रहे थे, जिनके वक्षःस्थल हारोंसे सुशोभित थे, जो Maa art किये हुए थे, जिनके शरीर हरिचन्दनसे लिप्त थे, जो उत्तम रथपर सवार थे, जिनके नाना रत्नोंकी किरणोंके सम्पर्क से इन्द्रधनुष उठ रहे थे, चन्द्र और सूर्यके समान जिनके आकार थे, जिनके गुणोंका वर्णन करना अशक्य था, सोधर्मं तथा ऐशानेन्द्रके समान जिनकी कान्ति थी, जो अत्यधिक आश्चर्य उत्पन्न कर रहे थे, जिनके गलेमें वरमालाएँ पड़ी थीं, सुगन्धिके कारण जिनके आस-पास भ्रमरोंने मण्डल बाँध रखे थे, जिनके मुख चन्द्रमाके समान थे तथा जो विनीत आकारको धारण कर रहे थे ऐसे राम-लक्ष्मणने नगरमें प्रवेश किया ॥ ९६- १०१ ॥ जिस प्रकार पहले, यक्षके द्वारा निर्मित नगर में इच्छानुसार भोग भोगते हुए वे रमण करते थे उसी प्रकार राजा पृथिवीधरके नगरमें भी वे इच्छानुसार उत्कृष्ट भोग भोगते हुए रमण करने
१. तद्देव्यापि म । २. हितो याता ज । ३. नृत्यलोक म । ४. सम्मदनिर्झराः म. ।
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