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षत्रिशत्तमं पर्व महता शोकभारेण परिपीडितमानसा । अपश्यन्ती परं दु:खवारणोपायमुन्मनाः ॥३०॥ अजातचिन्तिता नूनमेषात्मानं जिघांसति । पश्यामि तावदेतस्याश्चेष्टामन्तर्हितो भवन् ॥३१॥ इति संचित्य निशब्दो भूत्वा वटतरोरधः । तस्थौ कल्पमस्येव त्रिदशः कौतकान्वितः ॥३२॥ तमेव पादपं सापि प्राप्ता हंसवधूगतिः । नतेव स्तनमारेण चन्द्रवक्त्रा तनूदरी ॥३३॥ लक्ष्मणस्ता तथाभूतां दृष्टाचिन्तयदुक्तिभिः । वेभि तावदिमा सम्यक कुतः कृत्यं भविष्यति ॥३४॥ अंशुकेनाम्बुवर्णन कृत्वा पाशं तु कन्यका । जगादेवं गिरा योगिमनोहरणयोग्यया ॥३५॥ एतत्तरुनिवासिन्यः शृणुताहो सुदेवताः । भवतीभ्यो नमाम्येषां प्रसादः क्रियतां मयि ॥३६॥ वाच्यो मद्वचनादेवं भवन्तीभिः प्रयत्नतः । कुमारो लक्ष्मणो दृष्ट्वा वनेऽस्मिन् विचरन् ध्रुवम् ॥३७॥ यथा स्वद्विरहे बाला वनमाला सुदुःखिता । स्वयि मानसमारोप्य प्रेतलोकमुपागता ॥३८॥ अंशुकेन समालम्ब्य स्वं सा न्यग्रोधपादपे । त्वनिमित्तमसून् तन्वो स्यजन्त्यस्माभिरीक्षिता ॥३९।। एवमुक्कं स्वया नाथ यदि मे नात्र जन्मनि । समागमः कृतोऽन्यत्र प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥४०॥ एवं निगद्य शाखायां समर्पयति पाशकम् । संभ्रान्तश्च समालिङग्य सौमित्रिरिदमत्र वीत् ॥४१॥ अयि मुग्धे सुकण्ठेऽस्मिन् मझुजालिङ्गनोचिते । कस्मादंशुकपाशोऽयं त्वया सुमुखि सज्ज्यते ॥४२॥ अहं स लक्ष्मणो मुञ्च पाशं परमसुन्दरि । यथाश्रुतं निरीक्षस्व न चेत्प्रत्येषि बालिके ॥४॥ इत्युक्त्वा पाशमेतस्याः करात् सान्त्वनकोविदः । जहार लक्ष्मणः फेनपुजं तामरसादिव ॥४४॥
कुलीन श्रेष्ठ कुमारी हो ॥२९|| बहुत भारी शोकके भारसे इसका मन पीड़ित हो रहा है और दुःख दूर करनेका दूसरा उपाय नहीं देखती हुई यह बेचैन हो रही है ।।३०॥ निश्चित ही यह मनचाही वस्तुके न मिलनेसे आत्मघात करना चाहती है अतः छिपकर इसकी चेष्टा देखता हूँ ॥३१॥ इस प्रकार विचारकर कौतुक-भरे लक्ष्मण चुपचाप वटवृक्षके नीचे उस प्रकार खड़े हो गये जिस प्रकार कि कल्पवृक्षके नीचे कोई देव खड़ा होता है ॥३२॥ तदनन्तर जिसकी चाल हंसोके समान थी, : जो स्तनोंके भारसे झुकी हुई-सी जान पड़ती थी, जिसका मुख चन्द्रमाके समान था तथा जिसका उदर अत्यन्त कृश था ऐसी वनमाला भी उसी वृक्षके नीचे पहुंची ॥३३॥ उसे उस प्रकारकी देख लक्ष्मणने विचार किया कि इसके शब्दोंसे ठीक-ठीक मालूम तो करूं कि इसे किससे कार्य है ? ॥३४॥ तदनन्तर जलके समान स्वच्छ वर्णवाले वनसे फांसी बनाकर वह कन्या योगियोंका भी मन हरण करने में समर्थ वाणीसे इस प्रकार कहने लगी कि अहो, इस वृक्षके निवासी देवताओ! सुनिए, मैं आपके लिए नमस्कार करती हैं, आप मझपर प्रसन्नता कीजिए ॥३५-३६।। कमार लक्ष्मण वनमें अवश्य ही विचरण करते होंगे सो उन्हें प्रयत्नपूर्वक देखकर आप लोग मेरी ओरसे उनसे कहें ॥३७॥ कि तुम्हारे विरहमें कुमारी वनमाला अत्यन्त दुखी होकर तथा तुम्हींमें मन लगाकर मृत्युलोकको प्राप्त हुई है ।।३८॥ वटवृक्षपर कपड़ेसे अपने आपको टांगकर तुम्हारे मिमित्त प्राण छोड़ती हुई उस कृशांगोको हमने देखा है ॥३९॥ और यह कह गयी है कि हे नाथ! यद्यपि मेरे इस जन्ममें आपने समागम नहीं किया है तो अन्य जन्ममें प्रसन्नता करनेके योग्य हो ॥४०॥
इतना कहकर वह ज्यों ही शाखापर फांसी बांधती है त्योंही घबड़ाये हुए लक्ष्मणने उसका आलिंगन कर यह कहा कि हे मूर्खे ! यह कण्ठ तो मेरी भुजाके आलिंगनके योग्य है, हे सुमुखि ! तू इसमें यह वस्त्र की फांसी क्यों सजा रही है ? ॥४१-४२॥ मैं वही लक्ष्मण हूँ, हे परम सुन्दरि ! यह फाँसी छोड़ो, हे बालिके ! यदि तुझे विश्वास न हो तो जैसा सुन रखा हो वैसा देख लो ।।४३।। इस प्रकार कहकर सान्त्वना देने में निपुण लक्ष्मणने जिस प्रकार कोई
१. प्रसादं म. ।
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