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षत्रिंशत्तमं पर्व
ततोऽनुक्रमतः काले विकालप्रतिमे गते । घोरान्धकारसंरुद्ध विद्युच्चकितभीषणे ॥१॥ जातायां सुप्रसन्नायां शरदि प्रीतिनिर्भरः । ऊचे यक्षाधिपः पद्मं प्रस्थातुं कृतमानसम् ॥२॥ क्षन्तव्यं देव यत्किंचिदस्माकमिति दुष्कृतम् । विधातुं शक्यते केन योग्यं सर्व भवादृशाम् ॥३॥ इत्युक्त रामदेवोऽपि तमूचे गुह्यकाधिपम् । त्वयापि निखिला स्वस्य क्षन्तव्या परतन्त्रता ॥४॥ सुतरां तेन वाक्येन जातः सत्तमभावनः । यक्षाणामधिपो नत्वा संमाष्य विपुलक्रियम् ॥५॥ हारं स्वयंप्रमाभिख्यं ददौ पद्माय सोऽद्भुतम् । उद्यदिनकराकारे हरये मणिकुण्डले ॥६॥ चूडामणिं सुकल्याणं सीतायै बिलसत्प्रमम् । महाविनोददक्षां च वीणामोप्सितनादिनीम् ॥७॥ स्वेच्छया तेषु यातेषु यक्षराजः पुरीकृताम् । मायां समहररिकंचिद्दधानः शोकितामिव ॥८॥ बलदेवोऽपि कर्तव्यकरणाच्च ससंमदः । अमन्यत परिप्राप्तमुदारं शिवमात्मनः ॥९॥ पर्यटन्तो महीं स्वैरं नानारसफलाशिनः । विचित्रसंकथासक्ताः रममाणाः सुरा इव ॥१०॥ उल्लङ्ध्य सुमहारण्यं द्विपसिंहसमाकुलम् । जनोपभुक्तमुद्देशं वैजयन्तपुरं गताः ॥११॥ ततोऽस्तमागते सूर्ये दिक्चक्रे तमसावृते । नक्षत्रमण्डलाकोणे संजाते गगनाङ्गणे ॥१२॥ अपरोत्तरदिग्मागे क्षुद्रलोकभयावहे । यथाभिरुचिते देशे ते पुरो निकटे स्थिताः ।।१३।। अथात्र नगरे राजा प्रसिद्धः पृथिवीधरः । इन्द्राणी महिषी तस्य योषिद्गुणसमन्विता ॥१४॥
तदनन्तर घोर अन्धकारसे व्याप्त और बिजलीकी चमकसे भीषण वर्षा काल, दुष्कालके समान जब क्रम-क्रमसे व्यतीत हो गया तथा स्वच्छ शरद् ऋतु आ गयी तब रामने वहाँसे प्रस्थान करनेका विचार किया। उसी समय यक्षोंका अधिपति आकर रामसे कहता है कि हे देव ! हमारी जो कुछ त्रुटि रह गयी हो वह क्षमा कीजिए क्योंकि आप-जैसे महानुभावोंके योग्य समस्त कार्य करनेके लिए कौन समर्थ है ? ॥१-३॥ यक्षाधिपतिके ऐसा कहनेपर रामने भी उससे कहा कि आप भी अपनी समस्त परतन्त्रताको क्षमा कीजिए अर्थात् आपको इतने समय तक मेरी इच्छानुसार जो प्रवृत्ति करनी पड़ी है उसके लिए क्षमा कीजिए ॥४॥ रामके इस वचनसे यक्षाधिप अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने बहुत काल तक वार्तालाप कर नमस्कार किया, रामके लिए स्वयंप्रभ नामका अद्भुत हार दिया। लक्ष्मणके लिए उगते सूर्यके समान देदीप्यमान दो मणिमय कुण्डल दिये, और सीताके लिए महामांगलिक देदीप्यमान चूड़ामणि तथा महाविनोद करने में समथं एवं इच्छानुसार शब्द करनेवाली वीणा दी ॥५-७॥ तदनन्तर जब वे इच्छानुसार वहांसे चले गये तब यक्षराजने कुछ शोकयुक्त हो अपनी नगरी सम्बन्धी माया समेट ली ॥८॥ इधर राम भी कर्तव्य कार्य करनेसे हर्षित हो ऐसा मान रहे थे कि मानो मुझे उत्कृष्ट मोक्ष ही प्राप्त हो गया है ।।९।। अथानन्तर स्वेच्छानुसार पृथिवीमें विहार करते, नाना रसके स्वादिष्ट फल खाते, विचित्र कथाएँ करते और देवोंके समान रमण करते हए वे तीनों. हाथी और सिंहोंसे व्याप्त महावनको पार कर मनुष्योंके द्वारा सेवित वैजयन्तपुरके समीपवर्ती मैदानमें पहुँचे ॥१०-११॥ तदनन्तर जब सूर्य अस्त हो गया, दिशाओंका समूह अन्धकारसे आवृत हो गया. और आकाशरूपी आंगन नक्षत्रोंके समूहसे व्याप्त हो गया तब वे क्षुद्र मनुष्योंको भय उत्पन्न करनेवाले पश्चिमोत्तर दिग्भागमें नगरके समीप ही किसी इच्छित स्थानमें ठहर गये ॥१२-१३॥ अथानन्तर इस नगरका १. वर्षाकाले । २. लक्ष्मणाय ।
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