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पञ्चत्रिंशत्तम पर्व
अयमन्यश्च विवशो जनैः स्वकृतभोगिभिः । न योऽवगम्यते तत्र न स तत्र जनोऽर्यते ॥१७२॥ न कृता मन्दभागेन कस्मादभ्यागतक्रिया। तदा मयेति मेऽद्यापि तप्यते मानसं भृशम् ॥१७॥ रूपमेवमलं कान्तं युष्माकमवलोकयन् । भृशं क्रुद्धोऽपि को नाम न ययावतिविस्मयम् ॥१७॥ एवमुक्त्वा शुचा प्रस्तं रुदन्तं कपिलं गिरा । शुमयासान्त्वयद् रामः सुशर्माणं च जानकी ॥१५॥ ततो हेमघटाम्भोभिः किङ्करे राघवाज्ञया । कपिलः श्रावकः प्रीत्या स्नापितः सह भार्यया ॥१७६॥ परमं मोजितश्चान्नं वस्त्र रत्नश्च भूषितः । सुभूरिधनमादाय जगाम निजमालयम् ॥१७७॥ जनानां विस्मयकर सर्वोपकरणान्वितम् । भोगं यद्यपि यातोऽयं तथापि सविचक्षणः ॥१७८॥ सन्मानविशिखैर्विद्धो दष्टो गुणमहोरगैः । उपचारहतारमासौ तिं न लभते द्विजः ॥१७९।। दध्यौ चाहं पुरा या स्कन्धन्यस्तैन्धभारकः । यथा शोषितदेहः स तृषितोऽत्यन्तदुर्विधः ॥१८॥ ग्रामे तत्रैव जातोऽस्मि पश्य यक्षाधिपोपमः । रामदेवप्रसादेन चिन्तादुःखविवर्जितः ॥१८॥ आसीन्मे शीर्णपतितमनेकच्छिद्रजर्जरम् । काकाद्यशचिसंलिप्तं गृहं गोमववर्जितम् ॥१२॥ अधुना धेनुमिाप्तं बहुप्रासादसंकुलम् । रामदेवप्रसादेन प्राकारपरिमण्डलम् ।।१८३॥ हा मया पुण्डरीकाक्षी भ्रातरौ गृहमागती। निर्म ितौ विना दोषं तौ मृगाङ्कनिमाननौ ॥१८॥
क्योंकि विशेषको नहीं जाननेवाला मनुष्य किसी विशेषको कब प्राप्त हुआ है ? ॥१७०-१७१।। यह अथवा और कोई सभी लोग, स्वकृत कर्मको भोगनेवाले मनुष्योंसे विवश हैं। जिस मनुष्यका जहां ज्ञान नहीं वहाँ उसकी अर्चा नहीं होती॥१७२।। मुझ मन्दभाग्यने उस समय आपकी आतिथ्य. क्रिया क्यों नहीं की? यह विचारकर आज भी मेरा मन अत्यन्त सन्तापको प्राप्त है ॥१७३।। आपके अतिशय सुन्दर रूपको देखनेवाला मनुष्य हो अत्यन्त आश्चर्यको प्राप्त नहीं होता किन्तु आपके प्रति अत्यन्त क्रोध प्रकट करनेवाला पुरुष भी ऐसा कोन है जो अत्यन्त आश्चर्यको प्राप्त नहीं हुआ हो ॥१७४।। इस प्रकार कहकर वह कपिल ब्राह्मण शोकाक्रान्त हो रोने लगा, तब रामने शुभ वचनोंसे उसे सान्त्वना दी और सीताने उसकी स्त्री सुशर्माको समझाया ॥१७५।। तदनन्तर रामकी आज्ञासे किंकरोंने भार्या सहित कपिल श्रावकको सुवर्ण घटोंमें रखे हुए जलसे प्रीतिपूर्वक स्नान कराया ॥१७६।। उत्कृष्ट भोजन कराया और वस्त्र तथा रत्नोंसे उसे अलंकृत किया। तदनन्तर वह बहुत भारी धन लेकर अपने घर वापस गया ॥१७७|| यद्यपि वह बुद्धिमान् ब्राह्मण, लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाले तथा सर्व प्रकारके उपकरणोंसे युक्त भोगोपभोगके पदार्थों को प्राप्त हुआ था, तो भी चूंकि वह सम्मानरूपी बाणोंसे विद्ध था, गुणरूपी महासर्पोसे डसा गया था और सेवाशुश्रूषाके कारण उसकी आत्मा दब रही थी, इसलिए वह सन्तोषको प्राप्त नहीं होता था। भावार्थ-रामने तिरस्कारके बदले उसका सत्कार किया था, अपने अनेक गुणोंसे उसे वशीभूत किया था और स्नान, भोजन, पान आदि सेवा-शुश्रूषासे उसे सुखी किया था इसलिए वह रातदिन इसी शोकमें पड़ा रहता था कि देखो कहां तो मैं दुष्ट कि जिसने इन्हें एक रात घर भी नहीं ठहरने दिया और कहाँ ये महापुरुष जिन्होंने इस प्रकार हमारा उपकार किया ? ॥१७८-१७९॥ वह विचार करने लगा कि मैं पहले जिस गांवमें इतना अधिक दरिद्र था कि कन्धेपर लकड़ियोंका गट्ठा रखकर भूखा-प्यासा दुर्बल शरीर इधर-उधर भटकता था आज उसी गांवमें मैं रामके प्रसादसे यक्षराजके समान हो गया हूँ तथा सब चिन्ता और दुःखोंसे छूट गया हूँ॥१८०-१८१।। पहले मेरा जो घर जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गया था, अनेक छिद्रोंसे जर्जर था, काक आदि पक्षियोंकी अशुचिसे लिप्त था तथा जिसमें कभी गोबर भी नहीं लगता था, वही घर आज श्रीरामके प्रसादसे अनेक गायोंसे व्याप्त है, नाना महलोंसे संकीर्ण तथा प्राकार-कोटसे घिरा हुआ है ॥१८२-१८३।। हाय, बड़े "१. जातोऽयं म.। २. दृष्टो म. ।
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