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पपुराणे स्थितिरेषा जगन्नाथ लोके स्थावरजङ्गमे । धनवान् पूज्यते नित्यं यथादित्यो हिमागमे ॥१५॥ अधुना त्वं मया ज्ञातः सोऽसि नान्यः कदाचन । द्रविणानीह पूज्यन्ते न भवान् पद्म पूज्यते ॥१५९॥ नित्यमर्थयुतं देव मानयन्ति जना जनम् । त्यजन्त्यर्थपरित्यक्तं निष्प्रयोजनसौहृदम् ॥१६॥ यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमाल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥१६॥ अर्थेन विग्रहीनस्य न मित्रं न सहोदरः । तस्यैवार्थसमेतस्य परोऽपि स्वजनायते ॥१६॥ सोऽर्थो धर्मेण यो युक्तः सधर्मो यो दयान्वितः । सा दया निर्मला ज्ञेया मांसं यस्यां न भुज्यते ॥१६३॥ मांसाशनान्निवृत्तानां सर्वेषां प्राणधारिणाम् । अन्या मूलेन संपन्ना प्रशस्यन्ते निवृत्तयः ॥१६॥ राजन् विचित्ररूपोऽयं लोको मानुषलक्षितः । मादृशो ज्ञायते नैव यथाभूतोऽत्र यो जनः ॥१६५।। आस्तां तावद्भवानत्र वन्द्यते ये मवद्विधैः । पराभवं विमूढेभ्यो लभन्ते तेऽपि साधवः ॥१६६॥ पूर्व सनत्कुमाराख्यः किं ते ज्ञातो न चक्रभृत् । महर्द्धयः सुरा यस्य रूपं द्रष्टुमिहागताः ॥१६७।। सोऽपि श्रामण्यमासाद्य संप्राप्तः परिभूतताम् । पर्यटन्न कचिल्लेभे भिक्षामाचारकोविदः ॥१६॥ वनस्पत्युपजीविन्या तर्पितः सोऽन्यदा मुनिः । पञ्चाश्चर्यगुणैश्वर्यमाददे विजये पुरे ॥१६९॥ सुभूमश्चक्रभृद् भूत्वा कर कटकभास्वरम् । केयूरभूषितभुजो वदरार्थमढौकयत् ॥१७॥ वदरं नैकमप्यस्मै निःस्वोऽसावददात्ततः । अनमिज्ञो विशेषस्य विशेष कमवाप्तवान् ।।१७॥
मैंने नहीं जाना था कि आप प्रच्छन्न महेश्वर हो इसीलिए भस्मसे आच्छादित अग्निके समान मोहवह मुझसे आपका अनादर हो गया ॥१५७।। हे जगन्नाथ ! चराचर विश्वको यही रीति है कि शीत ऋतु में सूर्यके समान धनवान्की ही सदा पूजा होती है ॥१५८|| यद्यपि इस समय में जानता हूँ कि आप वही हैं अन्य नहीं फिर भी आपकी पूजा हो रही है सो हे पद्म ! यहाँ यथार्थमें धनकी ही पूजा हो रही है आपकी नहीं ॥१५९|| हे देव ! लोग निरन्तर धनवान् मनुष्यका ही सन्मान करते हैं और जिसके साथ मित्रताका प्रयोजन जाता रहा है ऐसे धनहीन मनुष्यको छोड़ देते हैं ॥१६०।। जिसके पास धन है उसके मित्र हैं, जिसके पास धन है उसके बान्धव हैं, जिसके पास धन है लोकमें वह पुरुष है और जिसके पास धन है वह पण्डित है ।।१६१।। जब मनुष्य धनरहित हो जाता है तब उसका न कोई मित्र रहता है न भाई। पर वही मनुष्य जन-धनसहित हो जाता है तो अन्य लोग भी उसके आत्मीय बन जाते हैं ||१६२।। धन वही है जो धर्मसे सहित है, धर्म वही है जो दयासे सहित है और निर्मल दया वही हैं जिसमें मांस नहीं खाया जाता ॥१६३।। मांस भोजनसे दूर रहनेवाले समस्त प्राणियोंके अन्य त्याग चूंकि मूलसे सहित रहते हैं इसलिए ही उनकी प्रशंसा होती है ।।१६४।। हे राजन् ! यह मनुष्य लोक विचित्र है इसमें मेरे जैसे लोगोंको तो कोई जानता ही नहीं है ।।१६५।। अथवा आपकी बात जाने दीजिए आप जैसे लोग जिनकी वन्दना करते हैं वे साधु भी मुखं पुरुषोंसे पराभव प्राप्त करते हैं ॥१६६।। क्या आप नहीं जानते कि पहले एक ऐसे सनत्कुमार चक्रवर्ती हो गये हैं जिनका रूप देखने के लिए बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंको धारण करनेवाले देव आये थे परन्तु वे भी मुनिपद धारणकर पराभवको प्राप्त हुए। आचार-शास्त्रके जानने में निपुण वे मुनिराज भ्रमण करते रहे परन्तु उन्हें कहीं भिक्षा नहीं मिली ।।१६७-१६८॥ फिर अन्य समय विजयपुर नगरमें वनस्पतिसे आजीविका करनेवाली एक स्त्रीने आहार देकर उन्हें सन्तुष्ट किया और पंचाश्चर्यरूपी गुणोंका ऐश्वयं प्राप्त किया ।।१६९।। जिनको भुजा बाजूबन्दसे विभूषित थी ऐसे सुभूमने चक्रवर्ती होकर अपना वलयविभूषित हाथ वेरके लिए बढ़ाया परन्तु यह दरिद्र है यह समझकर उनके लिए किसीने एक वेर भी नहीं दिया सो ठीक ही है
१. पञ्चाश्चयं जगुश्चर्य म. ।
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