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पंपपुराणे एवमुक्त्वा तथा कृत्वा दम्पती संपदान्वितौ । स्वशक्त्या गन्तुमुद्यक्ती शुद्धवेषविभूषितौ ॥१२९॥ वजतोश्च तयोरुना उत्तस्थुः पन्नगाः पथि । दंष्ट्राकरालवक्त्राश्च वेतालास्तारहासिनः ॥१३०॥ एवमादीनि वस्तूनि भीषणान्यवलोक्य तौ। निष्कम्पहृदयौ भूत्वा स्तुतिमेतामुपागतौ ॥१३॥ नमस्त्रिलोकवन्येभ्यो जिनेभ्यः सततं त्रिधा । उत्तीर्णभवपकेभ्यो दातृभ्यः परमं शिवम् ॥१३२॥ एतयोः स्तुवतोरेवं विदित्वा जिनमक्तिताम् । भेजिरे प्रशमं यक्षास्तौ च प्रासौ जिनालयम् ।।१३३॥ ततो नमो निषद्याया इत्युक्त्वा रचिताञ्जली । कृत्वा प्रदक्षिणं स्तोत्रमुदचीचरतामिदम् ॥१३॥
दुर्गतिदुःखदम् । भवन्तं शरणं नाथ चिरेण समुपागतः ॥१३५॥ चतुर्मिविंशतिं युक्तामक्षराणां महात्मनाम् । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योवन्दे भूतभविष्यताम् ॥१३६॥ पञ्चस्वैरावताख्येषु भरताख्येषु पञ्चसु । जिनानमामि वास्येषु तान्नमामि जिनास्त्रिधा ॥१३७॥ यैः संसारसमुद्रस्य कृते तरणतारणे । त्रिकालं सर्ववास्येषु तान्नमामि जिनांस्त्रिधा ।।१३८॥ मुनिसुव्रतनाथाय तस्मै भगवते नमः । त्रैलोक्ये शासनं यस्य सुविशुद्धं प्रकाशते ।।१३९।। इति कृत्वा स्तुति जानुमस्तकस्पृष्टभूतलौ । नेमतुस्तौ जिनं मक्त्या परिहृष्टतनूरुहौ ।।१४०॥ ततोऽसी कृतकर्तव्यो रक्षः सौम्यैः प्रियंवदैः । अनुज्ञातः समं पस्न्या द्रष्टं हलिन मुद्ययौ ॥१४१॥ राजमार्ग दिसंकाशान् प्रासादान् विमलस्विषः । ब्राह्मण्यै दर्शयन् याति दिव्यनारीसमाकुलान् ॥१४२॥
उनकी निर्मल कीति सर्वत्र फैल रही है । ॥१२६-१२७॥ हे प्रिये ! उठो, यह फूलोंका पिटारा तुम ले लो और मैं इस सुकुमार बच्चेको कन्धेपर रख लेता हूँ ॥१२८॥ इस प्रकार कहकर तथा वैसा ही कर हर्षसे भरे दोनों दम्पती जानेके लिए तत्पर हुए। अपनी शक्तिके अनुसार वे निर्मल वेषसे विभूषित थे ॥१२९|| जब वे चले तो उनके मागमें उग्र सर्प फणा तानकर खड़े हो गये तथा जिनके मुख डाँढोंसे विकराल थे और जो जोर-जोरसे हंस रहे थे ऐसे वेताल मार्गमें आड़े आ गये ॥१३०। परन्तु इन सब भयंकर वस्तुओंको देखकर भी उनके हृदय निष्कम्प रहे। वे निश्चल चित्त होकर यही स्तुति पढ़ते जाते थे कि ॥१३१॥ 'जो त्रिलोक द्वारा वन्दनीय हैं, जो भयंकर संसाररूपी कर्दमसे पार हो चुके हैं तथा जो उत्कृष्ट मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं ऐसे जिनेन्द्र भगवान्को मन, वचन, कायसे सदा नमस्कार हो' ॥१३२।। इस प्रकार स्तुति करते हुए उन दोनोंकी जिनभक्तिको जानकर यक्ष शान्त हो गये और वे रामपुरीके जिनालयमें पहुंच गये ॥१३३।। तदनन्तर 'भगवान्की वसतिकाके लिए नमस्कार हो' यह कहकर दोनोंने हाथ जोड़े और प्रदक्षिणा देकर दोनों ही यह स्तुति पढ़ने लगे ॥१३४॥ हे नाथ! महादुर्गतिके दुःख देनेवाले लौकिक मार्गको छोड़कर हम चिरकालके बाद आपको शरणमें आये हैं ।।१३५|| उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके वर्तमान तथा भूत-भविष्यत् सम्बन्धी तीर्थंकरोंकी चौबीसीको हम नमस्कार करते हैं। पांच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्रोंमें जो तीर्थकर हैं, हो चुके हैं अथवा होंगे उन सबको हम मन, वचन, कायसे नमस्कार करते हैं ।।१३६-१३७॥ जो संसार समुद्रसे स्वयं पार हुए हैं तथा जिन्होंने दूसरोंको पार किया है ऐसे समस्त क्षेत्रों सम्बन्धी तीथंकरोंको हम त्रिकाल नमस्कार करते हैं ॥१३८|| उन मुनिसुव्रत भगवान्को नमस्कार हो जिनका निर्मल शासन तीनों लोकोंमें प्रकाशमान हो रहा है ॥१३९।। इस प्रकार स्तुतिकर घुटनों और मस्तकसे पृथिवीतलका स्पर्श करते हुए उन्होंने जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया। उस समय भक्तिके कारण उन दोनोंके शरीरमें रोमांच उठ रहे थे॥१४०॥
तदनन्तर वन्दनाका कार्य पूर्ण कर चुकनेके बाद शान्त तथा मधुरभाषी रक्षकोंने जिसे आज्ञा दे दी थी ऐसा कपिल ब्राह्मण अपनी लोके साथ रामके दर्शन करनेके लिए चला ॥१४॥ वह, राजमार्गमें पर्वतोंके समान ऊँचे, निर्मल कान्तिके धारक, तथा दिव्य स्त्रियोंसे भरे जो १. रामम् । २. द्विसंकाशान् म. ।
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