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पद्मपुराणे
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ततो गत्वा मया साधोर्जिनेन्द्रवचनं श्रुतम् । आत्मा मे तर्पितस्तेन कुदृष्टिपरितापितः ॥१००॥ सुन समाश्रित्य तप्यन्ते सुधियस्तपः । त्यक्त्वा परिग्रहं सर्वं मुक्त्यालिङ्गनलालसाः ॥ १०१।। सोऽहंद्धर्मो मया लब्धस्त्रैलोक्यैकमहानिधिः । अमी यतो बहिर्भूताः क्लिश्यन्ते त्वन्यवादिनः ॥ १०२ ॥ यथाभूतो मुनेर्धर्मः श्रुतो धर्मेण तादृशः । ब्राह्मण्यै कथितः सर्वो मलवर्जितचेतसा ॥ १०३ ॥ ब्राह्मणी विनिशम्यैतं सुशर्मा वाक्यमब्रवीत् । मयापि त्वत्प्रसादेन लब्धो धर्मो जिनोदितः ॥ १०४ ॥ विधेः पश्य मया योगं मोहाद् विषफलार्थिना । वीच्छेनापि खया लब्धमन्नामरसायनम् ||१०५ मयासीन्मन्दधी भाजा मणिर्हस्तगतो यथा । निजाङ्गणगतः साधुरपमानमुपाहृतः ॥ १०६ ॥ उपवासपरिश्रान्तश्रमणं तं निरम्बरम् । निराकृत्यान्नवेलायां मार्गोऽन्यस्यैव वीक्षितः ॥ १०९ ॥ अर्हन्तं समतिक्रम्य पाकशासनवन्दितम् । ज्योतिष्कव्यन्तरादीनां शिरसा प्रणतिः कृता ॥ १०८ ॥ अहिंसानिर्मलं सारमर्हद्धर्मरसायनम् । अज्ञानात् समतिक्रम्य विषमं भक्षितं विषम् ॥ १०९ ॥ मानुषद्वीपमासाद्य त्यक्त्वा साधुपरीक्षितम् । धर्मरत्नं कुतः कष्टं विभीतकपरिग्रहः ॥११०॥ सर्वमक्षप्रवर्तेषु दिवारात्रौ च भोजिषु । अत्रतेषु विशीलेषु दत्तं फलविवर्जितम् ॥ १११ ॥ यं किलातिथिवेलायामागतं विभयोचितम् । यो नार्चयति दुर्बुद्धिस्तस्य धर्मो न विद्यते ॥ ११२ ॥ परिव्यक्तोत्सवतिथिः सर्वस्वैकान्तनिस्पृहः । निकेतरहितः सोऽयमतिथिः श्रमणः स्मृतः ॥ ११३ ॥ येषां न भोजनं हस्ते नाप्यासन्नपरिग्रहः । ते तारयन्ति निर्ग्रन्थाः पाणिपात्रपुटाशिनः ॥ ११४॥
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धन देते हैं ||१९|| तदनन्तर मैंने मुनिराजके पास जाकर जिनेन्द्र भगवान् के वचन सुने उससे आत्मा जो कि मिथ्या दर्शन से संतप्त थी अत्यन्त सन्तुष्ट हो गयी ||१००|| मुक्तिके आलिंगन की लालसा रखनेवाले बुद्धिमान् मुनि जिस धर्मका आश्रय ले समस्त परिग्रहका त्यागकर तप करते हैं वह अरहन्ता धर्मं मैंने प्राप्त कर लिया। वह धर्म तीनों लोकोंकी महानिधि है, इससे बहिर्भूत जो अन्यवादी हैं वे व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं ॥ १०१-१०२॥ तदनन्तर उस धर्मात्माने मुनिराजसे जैसा वास्तविक धर्मं सुना था वह सब शुद्ध हृदयसे उसने ब्राह्मणी के लिए कह दिया || १०३ | उसे सुन सुशर्मा ब्राह्मणी ब्राह्मणसे बोली कि मैंने भी तुम्हारे प्रसादसे जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्म प्राप्त कर लिया है || १०४ || 'मेरा यह भाग्यका योग तो देखो कि जो मोहवश विषफलकी इच्छा कर रहे थे तथा जिसे तद्विषयक रंचमात्र भी इच्छा नहीं थी ऐसे तुमने अर्हन्तका नामरूपी रसायन प्राप्त कर लिया || १०५ || जिस प्रकार किसी मूर्खके हाथमें मणि आ जाय और वह तिरस्कार कर उसे दूर कर दे उसी प्रकार मुझ मूर्खके गृहांगण में साधु आये और मैंने उनका अपमानकर उन्हें दूर कर दिया || १०६ || उस दिन आहारके समय उपवाससे खिन्न दिगम्बर मुनि घर आये सो उन्हें हटाकर मैंने दूसरे साधुका मागं देखा || १०७|| जिन्हें इन्द्र भी नमस्कार करता है ऐसे अहंन्तको छोड़कर मैंने ज्योतिषी तथा व्यन्तरादिक देवोंको शिर झुका-झुकाकर नमस्कार किया ॥ १०८ ॥ अर्हन्त भगवान्का धर्मरूपी रसायन अहिंसासे निर्मल तथा सारभूत है सो उसे छोड़कर मैंने अज्ञान वश विषम विषका भक्षण किया है ||१०९ || बड़े खेदकी बात है कि मैंने मनुष्य द्वीपको पाकर साधुओं द्वारा परीक्षित धर्मंरूपी रत्न तो छोड़ दिया और उसके बदले बहेड़ा अंगीकार किया ||११०॥ जो इन्द्रियों के विषयोंमें प्रवृत्त हैं, रात दिन इच्छानुसार खाते हैं, व्रत रहित हैं तथा शीलसे शून्य हैं, ऐसे साधुओं के लिए मैंने जो कुछ दिया वह सब निष्फल गया ॥ १११ ॥ जो दुर्बुद्धि मनुष्य आहार के समय आये हुए अतिथिका अपनी सामर्थ्य के अनुसार सन्मान नहीं करता है - उसे आहार आदि नहीं देता है उसके धर्म नहीं है | ११२ || जिसने उत्सवको तिथिका परित्याग कर दिया है, जो सर्व प्रकार के परिग्रहसे बिलकुल निःस्पृह है तथा घरसे रहित है ऐसा साधु ही अतिथि कहलाता है ॥ ११३ ॥ | जिनके १. यत् समाश्रित्य म । २. विगता इच्छा यस्य स तेन ।
३. इन्द्रवन्दितं ।
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