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पञ्चत्रिशतमं पर्व
१३९ तृषार्तेनेव सत्तोयं छायेवाश्रयकाक्षिणा । क्षुधार्तेनेव मिष्टान्नं रोगिणेव सुभेषजम् ॥८७॥ दुष्पथप्रतिपन्नेन वत्मवेप्सितदेशगम् । यानपात्रमिवाम्मोधी व्याकुलेन निमजता ॥८॥ मयेदं शासनं जैनं सर्वदुःखविनाशनम् । 'लब्धं मवत्प्रसादेन दुर्लभं पुरुषाधमैः ॥८९॥ त्रैलोक्येऽपि न मे कश्चिद्भवता विद्यते समः । येनायमीदृशो मार्गो दर्शितो जिनदेशितः ॥१०॥ इत्युक्त्वा शिरसा पादौ वन्दित्वाजलियोगिना। गुरुं प्रदक्षिणीकृस्य द्विजः स भवनं गतः ॥११॥ जगाद वातिहृष्टस्ता प्रसन्नविकचेक्षणः । दयिते परमाश्चर्य गुरोरद्य मया श्रुतम् । ॥१२॥ श्रुतं तव न तत्पित्रा जनकेनाथ वा पितुः । किं वाऽत्र बहुमिः प्रोक्तैर्गोत्रेणापि न ते श्रुतम् ॥१३॥ दृष्टं ब्राह्मणि यातेन यदरण्यं मयाद्भुतम् । तद्गुरोरुपदेशेन नेदानी विस्मयाय मे ॥९॥ किं किं मो ब्राह्मण ब्रूहि दृष्टं किंवा त्दया श्रुतम् । उक्तोऽवोचन्न शक्नोमि हर्षात्कथयितुं प्रिये ॥१५॥ आदरेणानुयुक्तश्च कौतुकिन्या पुनः पुनः । विप्रोऽवोचत शृण्वायें यन्मया श्रुतमद्भुतम् ॥१६॥ समिदर्थ प्रयातेन वनं तस्य समीपतः । दृष्टा पुरी मया रम्या यत्रासीद् गहनं वनम् ॥१७॥ तदासन्ने मया चैका दृष्टा नारी विभूषिता । नूनं सा देवता कापि मनोहरणभाषिता ॥१८॥ पृष्टा च सा मयाख्यातं तया रामपुरोति च । ददाति श्रावकेभ्योऽत्र किल रामो महद्वनम् ॥११॥
अत्यन्त शुद्ध हो गया था, ऐसा वह ब्राह्मण बोला कि हे नाथ ! आज आपके उपदेशसे तो मेरे नेत्र खुल गये हैं ।।८६।। जिस प्रकार प्याससे पीड़ित मनुष्यको उत्तम जल मिल जाय, आश्रयको इच्छा करनेवाले पुरुषको छाया मिल जाय, भूखसे पीड़ित मनुष्यको मिष्ठान्न मिल जाय, रोगीके लिए उत्तम औषधि मिल जाय, कमार्गमें भटके हएको इच्छित स्थान पर भेजनेवाला मार्ग मिल ज और बड़ी व्याकुलतासे समुद्रमें डूबनेवालोंको जहाज मिल जाय, उसी प्रकार आपके प्रसादसे सर्व दुःखोंको नष्ट करनेवाला यह जैन शासन मुझे प्राप्त हुआ है। यह जैन शासन नीच मनुष्योंके लिए सर्वथा दुर्लभ है ।।८७-८९॥ चूंकि आपने यह ऐसा जिन प्रदर्शित मार्ग मुझे दिखलाया है इसलिए तीन लोकमें भी आपके समान मेरा हितकारी नहीं है ॥९०।। इस प्रकार कहकर तथा अंजलिबद्ध शिरसे मुनिराजके चरणोंमें नमस्कार कर प्रदक्षिणा देता हुआ वह ब्राह्मण अपने घर चला गया ॥२१॥
तदनन्तर जिसके नेत्र कमलके समान विकसित हो रहे थे तथा जो अत्यन्त हर्षसे युक्त था ऐसा वह ब्राह्मण घर जाकर अपनी स्त्रीसे बोला कि हे प्रिये ! आज मैंने गरुसे परम आउचर्य सुना है ॥९२।। ऐसा परम आश्चयं कि जिसे तेरे पिताने, पिताके पिताने अथवा बहुत कहनेसे क्या तेरे गोत्र भरने नहीं सुना होगा ।।१३।। हे ब्राह्मणि ! वनमें जाकर जो अद्भुत बात मैंने देखी थी अब वह गुरुके उपदेशसे आश्चर्य करनेवालो नहीं रही ।।१४।। ब्राह्मणीने कहा कि हे ब्राह्मण ! तुमने क्या-क्या देखा है और क्या-क्या सुना है ? सो कहो। ब्राह्मणीके इस प्रकार कहने पर ब्राह्मण बोला कि हे प्रिये ! मैं हर्षके कारण कहनेके लिए समर्थ नहीं हूँ ॥९५।। तदनन्तर कौतुकसे भरो ब्राह्मणीने जब आदरके साथ बार-बार पूछा तब वह विप्र बोला कि हे आर्य ! जो आश्चर्य मैंने सुना है वह सुन ।।१६।।
मैं लकड़ियां लानेके लिए जंगल गया था सो उसके समीप ही जहाँ सघन वन था वहाँ एक मनोहर नगरी दिखी ।।९७।। मैंने उस नगरीके पास एक आभूषणोंसे विभूषित स्त्री देखी। जान पड़ता है कि मनोहर भाषण करनेवाली वह कोई देवी होगी ।।९८।। मैंने उससे पूछा तो उसने कहा कि यह रामपुरी नामकी नगरी है, यहां राजा रामचन्द्र श्रावकोंके लिए बहुत भारी
१. लब्धोपायं म. । २. योगिनः म । ३. क्वापि म.।
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