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पञ्चविंशत्तम पर्व
१३७ अचिन्तयञ्च द्यौरेषा अटव्यासीन्मृगाश्रिता । यस्यां समित्कुशाद्यथं दुःखं पर्यटिपं सदा ॥५४॥ अकस्मात् सेयमुत्तुङ्गङ्गमालोपशोभितैः । रत्नपर्वतसंकाशैर्विराजति पुरी गृहैः ॥५९॥ सरांस्यमूनि रम्याणि पद्मादिपिहितानि च । दृश्यन्ते यानि नो पूर्व मया दृष्टानि जातुचित् ॥६॥ उद्यानानि सुरम्याणि सेवितानि जनै शम् । दृश्यन्ते देवधामानि लक्षितानि महाध्वजैः ॥६॥ वारणः सतिमिर्गोभिर्महिषीमिश्च सङ्कटा । अस्योपकण्ठधरणी घण्टादिस्वनपूरिता ॥६२॥ किमेषा नगरी नाकादवतीर्णा मवेदिह । पातालादुद्गताहोस्वित् कस्यापि शुभकर्मणः ॥६३॥ स्वप्दमेवं नु पश्यामि मायेयं वत कस्यचित् । किम गन्धर्वनगरं पित्तव्याकुलितोऽस्मि किम् ॥६४॥ 'उपालिङ्गमिदं किं स्यात् प्रायेणास्यान्तिकस्य मे । इति संचिन्तयन् प्राप्तो विवादं परमं द्विजः ॥६५॥ दृष्ट्वा च प्रमदामेकां नानालंकारधारिणीम् । अपृच्छदुपसृत्येयं भद्रे कस्य पुरीत्यसौ ॥६६॥ सा जगौ जातु पद्मस्य पुरीयं किं न ते श्रुता । यस्य लक्ष्मीधरो भ्राता सीता च प्राणवल्लमा ॥१७॥ एतत् पश्यसि यद् विप्र पुर्या मध्ये महागृहम् । शरदनसमच्छायमत्रासौ पुरुषोत्तमः ॥६॥ लोको दुर्लमदर्शन सर्वोनेनातिदुर्विधः । यच्छता वाञ्छितं द्रव्यं जनितः पार्थिवोपमः ॥६९।। विप्रोऽवोचदुपायेन केन पश्यामि सुन्दरि । पद्मं सद्भावतः पृष्टा निवेदयितुमर्हसि ॥७॥ इत्युक्त्वा समिधाभारं निक्षिप्य भुवि साञ्जलिः । पपात पादयोस्तस्याः सा कस्य न मनोहरा ॥१॥
बच्चा हो हो ।।५७।। यह सब देख, वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि क्या यह स्वर्ग है ? अथवा मृगोंसे सेवित वही, अटवी है ? जिसमें मैं इन्धन तथा कुशा आदिके लिए निरन्तर दुःखपूर्वक भटकता रहता था ॥५८|| यह नगरी ऊँचे-ऊँचे शिखरोंकी मालासे शोभायमान, तथा रत्नमयी पर्वतोंके समान दीखनेवाले भवनोंसे अकस्मात् ही सुशोभित हो रही है ।।५९।। यहां कमल आदिसे आच्छादित जो ये मनोहर सरोवर दिखाई दे रहे हैं वे मैंने पहले कभी नहीं देखे ॥६०॥ यहाँ मनुष्योंके द्वारा सेवित सुरम्य उद्यान और बड़ी-बड़ी ध्वजाओंसे युक्त मन्दिर दिखाई पड़ते हैं ॥६१| इस नगरकी निकटवर्ती भूमि, हाथियों, घोड़ों, गायों और भैंसोंसे संकीर्ण तथा घण्टा आदिके शब्दोंसे पूर्ण है ॥६२॥
क्या यह नगरी यहाँ स्वर्गसे अवतीर्ण हुई है ? अथवा किसी पुण्यात्माके प्रभावसे पातालसे निकली है ।।६३।। क्या मैं ऐसा स्वप्न देख रहा हूँ ? अथवा यह किसीकी माया है ? या गन्धर्वका नगर है ? अथवा मैं स्वयं पित्तसे व्याकुलित हो गया हूँ ? ॥६४॥ अथवा क्या मेरा निकट कालमें मरण होनेवाला है सो उसका चिह्न प्रकट हुआ है ? इस प्रकार विचार करता हुआ वह ब्राह्मण अत्यधिक विवादको प्राप्त हुआ ॥६५।। उसी समय उसे नाना अलंकार धारण करनेवाली एक स्त्री दिखी सो उसके पास जाकर उसने पूछा कि हे भद्रे ! यह किसकी नगरी है ? ॥६६॥ उसने कहा कि यह रामकी नगरी है, क्या तुमने कभी सुना नहीं ? उन रामकी कि लक्ष्मण जिनके भाई हैं और सीता जिनकी प्राणप्रिया है ॥६७।। हे ब्राह्मण ! नगरीके बीच में जो यह शरद् ऋतुके मेषके समान कान्तिवाला बड़ा भवन देख रहे हो इसीमें वे पुरुषोत्तम रहते हैं ॥६८।। जिनका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसे इन पुरुषोत्तमने मन वाञ्छित द्रव्य देकर सभी दरिद्र मनुष्योंको राजाके समान बना दिया है ॥६९।। ब्राह्मणने कहा कि हे सुन्दरि! मैं किस उपायसे रामके दर्शन कर सकता हूँ ? मैं तुमसे सद्भावसे पूछ रहा हूँ अतः बतलानेके योग्य हो ॥७०॥ इतना कहकर उस ब्राह्मणने ईन्धनका भार पथिवी पर रख दिया और स्वयं हाथ जोड़कर उस स्त्रीके चरणोंमें गिर पड़ा, सो ठीक ही है क्योंकि वह स्त्री किसका मन नहीं हरती थी ? ||७१।। ।
१. उपलिङ्ग क. । उपालिङ्गं मरणचिह्नम इति टिप्पणपुस्तके टिप्पणी । २. अतिदरिद्रः ।
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