________________
१३६
पद्मपुराणे
अधीश्वरः स यक्षाणां महाविभवसंगतः। रम्यकाननसंसक्तः क्रीडन्पूतनसंज्ञकः ॥४३॥ दूरादेव च ती दृष्ट्वा महारूपो गणाधिपः । प्रयुज्यावधिमज्ञासी बलनारायणाविति ॥४४॥ ततस्तदनुमावेन वात्सल्येन च भूयसा । क्षणेन नगरी तेषां तेन रम्या विनिर्मिता ॥४५॥ ततस्ते सुखसंपलं सुप्ताः किल सुचारुणा । प्रमाते गीतशब्देन प्रबोधं समुपागताः ॥४६ । तल्पेऽवस्थितमात्मानमपश्यन् रत्नराजिते । प्रासादं च महारम्यं बहुभूमिकमुज्ज्वलम् .४७॥ देहोपकारणव्यग्रं परिवर्ग च सादरम् । नगरं च महाशब्दशालगोपुरशोभितम् ॥४८॥ तेषां महानुभावानां दृष्टेऽस्मिन् सहसा पुरे । न मनो विस्मयं प्राप तद्धि अदविचेष्टितम् ॥१९॥ अशेषवस्तुसंपन्नास्तत्र ते चारुचेष्टिताः । अवस्थानं सुखं चक्रुरमरा इव भोगिनः ॥५०॥ यथाधिपेन रामस्य पुरी यस्मात् प्रकल्पिता । ततो महीतले ख्यातिं गता रामपुरोति सा ॥५१॥ प्रतीहारा मटाः शूरा अमात्याः 'सप्तयो गजाः । पौराश्च विविधास्तस्यामयोध्यायामिवामवन् ॥५॥ कुशाग्रनगरेशोऽयं गणिनं पृष्टवानिति । तयोर्नाथ तथाभूतो स द्विजः किमु चेष्टितः ॥५३॥ उवाच च गणस्वामी शृणु श्रेणिक स द्विजः । प्रयातः प्रातरुत्थाय दात्रहस्तो वनस्थलीम् ॥५४॥ भ्रमंश्च समिदाद्यर्थमकस्मार्चलोचनः । नातिदूरे पुरी पृथ्वीमपश्यद् विस्मिताननः ॥५५॥ असितामिः सिताभिश्च पताकाभिर्विराजिताम् । शरन्मेघसमानैश्व भवनैरतिमासुरैः ॥५६॥ पुण्डरीकातपत्रेण मध्ये समपलक्षितम् । महाप्रासादमेकं च कैलासस्येव शावकम् ॥५७॥
त्रियोंके साथ लीलापूर्वक उस वटवृक्षके पास जानेके लिए चला ॥४२॥ यक्षोंका वह अधिपति महावैभवसे युक्त था, रम्य वनोंमें क्रीड़ा करता आ रहा था और 'पूतन' नामसे सहित था ॥४३॥ यक्षराजने अत्यन्त सुन्दर रूपके धारक राम-लक्ष्मणको दूरसे ही देख अवधिज्ञान जोड़कर जान लिया कि ये बलभद्र और नारायण हैं ||४४|| तदनन्तर उनके प्रभाव एवं बहत भारी वात्सल्यसे उसने उनके लिए क्षण-भरमें एक सुन्दर नगरीकी रचना कर दी ॥४५॥ तत्पश्चात् वे वहाँ सुखसे सोये और प्रातःकाल अतिशय मनोहर संगीतके शब्दसे प्रबोधको प्राप्त हुए ॥४६॥ उन्होंने अपने आपको रत्नोंसे सुशोभित शय्यापर अवस्थित देखा, अनेक खण्डका अत्यन्त मणीय उज्ज्वल महल देखा, आदरके साथ शरीरकी सेवा करने में व्यग्र सेवकोंका समूह देखा और महाशब्द, प्राकार तथा गोपुरोंसे शोभित नगर देखा ॥४७-४८॥ सहसा इस नगरको दीखनेपर उन महानुभावोंका मन आश्चर्यको प्राप्त नहीं हुआ सो ठीक ही है क्योंकि यह सब चमत्कार क्षुद्र चेष्टा थी ॥४९॥ सुन्दर चेष्टाओंको धारण करनेवाले राम, सीता और लक्ष्मण समस्त वस्तुओंसे युक्त हो देवोंके समान भोग भोगते हुए उस नगरीमें सुखसे रहने लगे ॥५०॥ चूँकि वह नगरी यक्षराजने रामके लिए बनायी थी इसलिए महीतलपर रामपुरी इसी नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई ॥५१।। द्वारपाल, भट, शरवीर, मन्त्री, घोड़े,हाथी तथा नाना प्रकारके नगरवासी जिस प्रकार अयोध्यामें थे उसी प्रकार इस रामपुरीमें भी थे ॥५२॥ तदनन्तर राजा श्रेणिकने गौतम स्वामीसे पूछा कि हे नाथ ! राम-लक्ष्मणके साथ उस प्रकार व्यवहार करनेवाले उस कपिल ब्राह्मणका क्या हाल हुआ? सो कहिए ॥५३॥ तब गौतम स्वामी बोले कि हे श्रेणिक ! सुन, वह ब्राह्मण प्रभात काल उठकर तथा हँसिया हाथमें लेकर वनकी ओर चला ॥५४॥ वह इन्धन आदिकी प्राप्तिके लिए इधर-उधर घूम रहा था कि अकस्मात् ही दृष्टि ऊपर उठानेपर उसने एक विशाल नगरी देखी। देखकर उसका मुख आश्चर्यसे चकित हो गया ॥५५॥ वह नगरी सफेद तथा अन्य रंगोंकी अनेक पताकाओं
और शरद् ऋतुके मेघोंके समान अतिशय देदीप्यमान भवनोंसे सुशोभित थी ।।५६|| नगरीके मध्यमें सफेद कमलरूपी छत्रसे सहित एक बड़ा भवन था जो ऐसा जान पड़ता था मानो कैलासका १. अश्वाः। २. राजगृहनगराधिपः श्रेणिकराजः। ३. समिदाभ्यर्ण-म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org