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पपपुराणे अयि पापे किमित्येषामिह दत्तं प्रवेशनम् । प्रयच्छाम्यद्य ते दुष्टे बन्धं गोरपि दुस्सहम् ॥१४॥ पश्येमे निस्त्रपा पृष्टाः केऽपि पांशुलपाण्डुकाः । अग्निहोत्रकुटी पापा कुर्वन्त्युपहतां मम ॥१५॥ ततः सीताऽब्रवीत् पद्ममार्यपुत्र कुकर्मणः । अस्येदमास्पदं दग्धं परमाक्रोशकारिणः ॥१६॥ वरं पुष्पफलच्छन्नः पादपैरुपशोभिते । सरोभिश्चातिविमलैः पद्मादिपिहितैर्वने ॥१७॥ सारङ्गरुषितं साध क्रीडद्भिर्निजयेच्छया । श्रूयते नेदृशं तत्र नितान्तं परुषं वचः ॥१८॥ अस्मिन् राघव नाकामे देशे धनसमुज्ज्वले। समस्तो निष्ठुरो लोको ग्रामवासी विशेषतः ॥१९॥ विप्रस्य रूक्षया वाचा क्षोभितोऽसौ ततोऽखिलः । ग्रामः समागतो दृष्ट्वा तेषां रूपं सुरोपमम् ॥२०॥ अब्रवीद ब्राह्मणकान्ते' पथिकाः क्षणमेककम् । तिष्ठन्तु किमिमे दोषं कुर्वन्ति विनयान्विताः ॥२१॥ ततो निर्भत्स्य सकलं तं लोकं कोपलोहितः । बभाषे तो द्विजः प्राप सारमेयो गजाविव ॥२२॥ निष्क्रामत परं गेहान्मदीयादपवित्रकौ । एवमादिवचोघातैर्लक्ष्मीमान् कुपितस्ततः ॥२३॥ ऊर्ध्वपादमधोग्रीवं कृत्वा तं ब्राह्मणाधमम् । अब्रह्मण्यं प्रकूजन्तं शोणितारुणलोचनम् ॥२४॥ भ्रमयित्वा क्षिती यावदास्फालयितुमुद्यतः । रामेण वारितस्तावदिति कारुण्यधारिणा ॥२५॥ सौमित्रे किमिदं क्लीबे प्रारब्धं भवतेदशम् । मारितेन किमेतेन जीवघेतेन ते ननु ॥२६॥ मुञ्चैनं त्वरितं क्षुद्रं यावत्प्राणेन मुच्यते । अयशः परमेतस्मिल्लभ्यते केवलं मृते ॥२७॥ श्रमणा ब्राह्मणा गावः पशुस्त्रीबालवृद्धकाः । सदोषा अपि शूराणां नैते वध्याः किलोदिताः ॥२८॥ .
उसने कहा कि हे पापिनि ! तूने इन्हें यहाँ प्रवेश क्यों दिया है ? अरी दुष्टे ! मैं आज तुझे पशुसे भी अधिक दुःसह बन्धनमें डालता हूँ ॥१४॥ देख, जिनका शरीर धूलिसे धूसर हो रहा है, ऐसे ये निर्लज्ज, पापी, ढीठ व्यक्ति मेरी यज्ञशालाको दूषित कर रहे हैं ॥१५॥
तदनन्तर सीताने रामसे कहा कि हे आर्यपुत्र ! इस कुकर्मा तथा अतिशय अपशब्द कहनेवाले इस ब्राह्मणका यह अधम स्थान छोड़ो ॥१६।। फूलों और फलोंसे आच्छादित वृक्षों तथा कमल आदिसे युक्त अत्यन्त निर्मल सरोवरोंसे सुशोभित वनमें स्वेच्छासे साथ-साथ क्रोड़ा करनेवाले हरिणोंके साथ निवास करना अच्छा, जहाँ इस प्रकारके अत्यन्त कठोर शब्द सुनाई नहीं पड़ते ॥१७-१८॥ हे राघव ! स्वर्गके समान आभावाले इस अतिशय सुन्दर देशमें समस्त लोग निष्ठुर हैं और खासकर ग्रामवासी तो अत्यन्त निष्ठुर हैं ही ।।१९।। ब्राह्मणके रूक्ष वचनोंसे क्षोभको प्राप्त हुआ समस्त गाँव उनका देवतुल्य रूप देखकर वहाँ आ गया ॥२०॥ गाँवके लोगोंने कहा कि हे ब्राह्मण ! यदि ये पथिक तेरे मकानमें एक ओर क्षण-भरके लिए ठहर जाते हैं तो क्या दोष उत्पन्न कर देंगे? ये सब बड़े विनयी जान पड़ते हैं ॥२१॥ उसने क्रोधसे लाल होकर सब लोगोंको डाँटते हुए, राम-लक्ष्मणसे कहा कि तुम लोग अपवित्र हो, अत: मेरे घरसे निकलो। ब्राह्मणका राम-लक्ष्मणके प्रति रोष दिखाना ऐसा ही था जैसा कि कोई एक कुत्ता दो हाथियोंके प्रति रोष दिखाता है उन्हें देखकर भोंकता है। तदनन्तर उसके इस प्रकारके वचन सम्बन्धी आघातसे लक्ष्मणको क्रोध आ गया। वे रुधिरके समान लाल-लाल नेत्रोंके धारक तथा अमांगलिक अपशब्द बकनेवाले उस नीच ब्राह्मणको ऊर्ध्वपाद और अधोग्रीव कर घुमाकर ज्यों ही पृथिवीपर पछाड़नेके लिए उद्यत हुए त्यों ही करुणाके धारी रामने उन्हें यह कहते हुए रोका ||२२-२५॥ कि हे लक्ष्मण ! तुम इस बेचारे दोन प्राणीपर यह क्या करने जा रहे हो? यह तो जीवित रहते हुए भी मृतकके समान है, इसके मारनेसे क्या लाभ है ? ॥२६।। जबतक यह निष्प्राण नहीं होता है तबतक इस क्षुद्रको शीघ्र ही छोड़ दो। इसके मरनेपर केवल अपयश ही प्राप्त होगा ॥२७॥ मुनि, ब्राह्मण, गाय, पशु, स्त्री, बालक और वृद्ध ये सदोष होनेपर भी शूरवीरोंके द्वारा बध्य १. ब्राह्मण कान्तां म.। २. लोललोहितःम ।
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