________________
पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व
५
अथ ते त्रिदशाभिख्याः काननं नन्दनोपमम् । विहरन्तः सुखं प्राप्ता देशमत्यन्तमुज्ज्वलम् ||१॥ मध्ये यस्य नदी भाति प्रसिद्धजलवाहिनी । तापीति विश्रुता नानापक्षिवर्गानुनादिता ||२|| अरण्ये तत्र निस्तोये सीताऽत्यन्तश्रमान्विता । जगाद राघवं नाथ कण्ठशोषो ममोत्तमः ॥३॥ यथा भवशतैः खिन्नो मध्यो दर्शनमर्हतः । वाञ्छत्येवमहं तीव्रतृष्णयाऽऽकुलिता जलम् ||४|| इत्युक्त्वा वार्यमाणापि निषण्णा सुतरोरधः । रामेण जगदे देवि विषादं मागमः शुभे ||५|| आसन्नोऽयं महाग्रामो दृश्यते विकटालयः । उत्तिष्ठाशु प्रयामोऽत्र शिशिरं वारि पास्यति ॥ ६ ॥ एवमुक्ते तथा स्वैरं स्वैरं प्रस्थितया समम् । प्राप्तौ तावरुणग्रामं महाधन कुटुम्बिकम् ॥७॥ आहिताग्निर्द्विजस्तत्र कपिलो नाम विश्रुतः । गेहे तस्यावतीर्णौ तौ यथाक्रममुपागते ॥८॥ अत्राग्निहोत्रशालायामपनीय श्रमं क्षणम् । तद्ब्राह्मण्या जलं दत्तं पपौ सीता सुशीतलम् ||९|| यावत् तिष्ठन्ति ते तत्र द्विजस्तावदरण्यतः । विल्वाश्वत्थपलाशैवोभारवाही समागतः ॥ १० ॥ दावानलसमं यस्य मानसं नित्यकोपिनः । कालकूटविषं वाक्य मुलुकसदृशं मुखम् ॥११॥ कमण्डलुशिखाकूर्च वालसूत्रादिभिः परम् । त्रिभ्राणः कुटिलं वेषमुच्छवृत्तिं भजन् किल ॥ १२॥ दृष्ट्वा तान् कुपितोऽत्यन्तभ्रुकुटीकुटिलाननः । उवाच ब्राह्मणी वाचा तक्षन्निव सुतीक्ष्णया ॥१३॥
अथानन्तर देवोंके समान शोभाको धारण करनेवाले वे तीनों, नन्दन वनके समान सुन्दर वनमें सुखसे विहार करते हुए एक ऐसे अत्यन्त उज्ज्वल देशमें पहुँचे, जिसके मध्य में प्रसिद्ध जलको बहाने वाली, पक्षी समूहसे शब्दायमान तापी नामकी प्रसिद्ध नदी सुशोभित है ॥ १-२ ॥ वहाँके निर्जल वन में जब सीता अत्यन्त थक गयी तब रामसे बोली कि नाथ ! मेरा कण्ठ बिलकुल सूख गया है ||३|| जिस प्रकार सैकड़ों जन्म धारण करनेसे खेदको प्राप्त हुआ भव्य बरहन्त भगवान् के दर्शन चाहता है उसी प्रकार तीव्र पिपासासे आकुलित हुई मैं जल चाहती हूँ ||४|| इतना कहकर वह रोकनेपर भी एक उत्तम वृक्षके नीचे बैठ गयी। रामने कहा कि हे देवि ! हे शुभे ! विषादको प्राप्त मत होओ ||५|| यह पास ही बड़े-बड़े महलोंसे युक्त बड़ा भारी ग्राम दिखाई दे रहा है, उठो, शीघ्र ही चलें, वहीं शीतल पानी पीना ||६|| इस प्रकार कहनेपर धीरे-धीरे चलती हुई सीताके साथ चलकर वे दोनों, जहां अनेक धनिक कुटुम्ब रहते थे, ऐसे अरुण ग्राम में पहुंचे ||७|| वहाँ प्रतिदिन होम करनेवाला एक कपिल नामका ब्राह्मण रहता था सो वे दोनों यथा क्रमसे प्राप्त हुए, उसीके घर उतरे ||८|| यहाँ यज्ञ शाला में क्षण-भर विश्राम कर सीताने उसकी ब्राह्मणी के द्वारा दिया शीतल जल पिया ||९|| वे सब वहाँ ठहर ही रहे थे कि इतनेमें बेल, पीपल और पलाशकी लकड़ियों का भार लिये ब्राह्मण जंगलसे वापस आ पहुंचा || १०|| निरन्तर क्रोध करनेवाले उस ब्राह्मणका मन दावानलके समान था, वचन कालकूटके समान थे, और मुख उल्लूके सदृश था || ११ | वह हाथमें कमण्डलु लिये था, उसने शिरपर बड़ी चोटी रख छोड़ी थी, मुखपर लम्बी-चौड़ी दाढ़ी बढ़ा ली थी और कन्धेपर यज्ञोपवीतका सूत्र धारण किया था, इन सब चीजोंसे वह अत्यन्त कुटिल वेषको धारण कर रहा था तथा उञ्छ वृत्तिसे अपनी जीविका चलाता था ||१२|| उन्हें देखते ही उसका क्रोध उमड़ पड़ा, उसका मुख भौंहोंसे अत्यन्त कुटिल हो गया और वह ब्राह्मणीसे इस प्रकार बोला, मानो तीक्ष्ण वचनोंसे उसे छील ही रहा हो ॥ १३ ॥ १ इत्युक्ता म । २. पश्यति म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org