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पपपुराणे
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कृत्वा सुनिभृतं भृत्यं तस्य विश्वानलाइगजम् । यातौ सीतान्वितौ स्वेष्टं कृतिनी रामलक्ष्लगौ ॥१८॥ वालिखिल्यस्तु संप्राप्तः समं रौद्रविभूतिना । स्वपुरस्यान्तिकां क्षोणी स्मरन् बान्धवचेष्टितम् ॥९९।। प्रत्यासन्नं ततः कृत्वा विभूत्या परयान्वितम् । पितरं निरगात्तुष्टा पुरात् कल्याणमालिनी ।।१०।। प्रतीतां सनमस्कारां तां समाघ्राय मस्तके । निजयाने पुनः कृत्वा प्रविष्टः कुवरं नृपः ॥१०॥ पृथिवी महिषी तोषसञ्जातपुलका क्षणात् । पुरातनी तर्नु भेजे कान्तिसागरवर्तिनीम् ॥१०२॥ सिंहोदरप्रभृतयो नृपा प्रभृतयोऽखिलाः । गुणैः कल्याणमालायाः परमं विस्मयं गताः ।।१०३।।
उपजातिवृत्तम् यद्रौद्रभूतिः सुचिरं विचिनं समाजयचौर्यपरायणः स्वम् । अनेकदेशप्रभवं विशालं तवालिखिल्यस्य गृह विवेश ।।१०४॥ जातेऽस्य वाग्वर्तिनि रौद्रभूनी वशीकृतम्लेच्छसुदुर्गभूमौ । सिंहोदरोऽपि प्रतिपन्नशङ्कः स्नेहं ससंमानमलंचकार ॥१०॥ सोऽयं समासाय परां विभूति प्रसादतो राघवसत्तमस्य ।
महारथी प्राणसमासमेतो रविर्यथैवं शरदा रराज ॥१०६।। इत्या रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते वालिखिल्योपाख्यानं नाम चतुस्त्रिशत्तमं पर्व ॥२४॥
समागम प्राप्त करो। वहां पहुंचनेपर तुम हम लोगोंको जान सकोगे। इस प्रकार कहनेपर बुद्धिमान् बालिखिल्य अपने घर चला गया ॥९७।।।
तदनन्तर विश्वानलके पुत्र रौद्रभूतिको बालिखिल्यका निश्चल मित्र बनाकर अतिशय कुशल राम-लक्ष्मण सीताके साथ अपने इष्ट स्थानको चले गये ।।९८॥ बान्धवजनोंकी चेष्टाका स्मरण करता हुआ बालिखिल्य, रौद्रभूतिके साथ जब अपने नगरको समीपवर्ती भूमिमें पहुंचा तब निकटवर्ती पिताको परम विभूतिसे युक्तकर पुत्री कल्याणमालिनी सन्तुष्ट हो उसका सत्कार करनेके लिए नगरसे बाहर निकली ॥९९-१००॥ तदनन्तर नमस्कार करती हुई पुत्रीको पहचानकर राजा बालिखिल्यने उसका मस्तक सुंघा फिर अपने रथपर बैठाकर कूबर नगरमें प्रवेश किया ।।१०।। बालिखिल्यकी रानी पथिवीके शरीरमें हर्षातिरेकसे रोमांच निकल आये और वह कान्तिरूपी सागरमें वर्तमान अपने पुराने शरीरको क्षण-भरमें पुनः प्राप्त हो गयी ॥१०२।। सिंहोदर आदि समस्त राजा कल्याणमालाके गुणोंसे परम आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥१०३।। रौद्रभूतिने चिरकाल तक चोरीमें तत्पर रहकर नाना देशोंमें उत्पन्न जो विविध प्रकारका विशाल धन इकट्ठा किया था वह सब बालिखिल्यके घरमें प्रविष्ट हुआ ॥१०४|| जब म्लेच्छोंकी सुदुर्गम भूमिको वश करनेवाला रौद्रभूति बालिखिल्यका आज्ञाकारी हो गया तब शंकाको प्राप्त हुआ सिंहोदर भी सम्मानसहित उसके साथ बहुत स्नेह करने लगा ॥१०५।। इस प्रकार महारथी बालिखिल्य राम-लक्ष्मणके प्रसादसे परम विभूतिको पांकर अपनी प्राणप्रियासे इस तरह सुशोभित होने लगा जिस तरह कि शरद्ऋतुसे सूर्य सुशोभित होता है ।।१०६।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरितमें बालिखिल्यका वर्णन
करनेवाला चौंतीसवाँ पर्व समाप्त हआ ॥३४॥
१. माधाय म. । २. धनम्, ३. वशीकृते म्लेच्छ म. । Jain Education International
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