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पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व
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स्वशरीरेऽपि निस्संगा ये लुभ्यन्ति न जातुचित् । ते निष्परिग्रहा ज्ञेया मुक्तिलक्षणभूषिताः ॥ ११५ ॥ एवमुद्गतसदृष्टिः कुदृष्टिमलवर्जिता । सुशर्मा शुशुभे पथ्यौ भरणीव बुधे परम् ॥११६ ॥ पादमूले ततो नीत्वा गुरोस्तस्यैव सादरम् | अणुव्रतानि सामोदा ब्राह्मणी तेन लम्भिता ॥११७॥ विज्ञाय कपिलं रक्तं परमं जिनशासने । कुलान्याशीविषोप्राणि विप्राणां भेजिरे शमम् ॥ ११८ ॥ मुनिसुव्रतनाथस्य संप्राप्य सुदृढं मतम् । बभूवुः श्रावकास्तीत्रा ऊचुश्चैव सुबुद्धयः ॥११९|| कर्मभारगुरूभूता मानो तानितमस्तकाः । स्तोकेन नरकं घोरं न याता स्मः प्रमादिनः ॥ १२० ॥ अज्ञातमिदमप्राप्तं जन्मान्तरशतेष्वपि । जिनेन्द्रशासनं ब्रह्म कृच्छ्रात् प्राप्तं सुनिर्मलम् ॥ १२१ ॥ ध्यानाशुशुक्षिणाविद्धे मनऋत्विक्समाहिताः । स्वकर्मसमिधो भावसर्पिषा जुहुमोऽधुना ।।१२२।। इति केचित् समाधाय मनः संवेगनिर्भराः । विरक्ताः सर्वसंगेभ्यो बभूवुः श्रमणोत्तमाः ।। १२३ ।। सागारधर्मरक्तस्तु कपिलः परमक्रियः । कदाचिद् ब्राह्मणोमूचे सदभिप्रायवर्तिनीम् ॥ १२४ ॥ कान्ते रामपुरीं किं नो व्रजामोऽद्य तमूर्जितम् । विशुद्धचेष्टितं द्रष्टुं रामं राजीवलोचनम् ।। १२५ ।। आशापरायणं नित्यमुपायगतमानसम् । दारिद्र्यवारिधौ मग्नमाधूनं कुक्षिपूरणे ॥ १२६ ॥ जनमुत्तारयत्येष किल भव्यानुकम्पकः । इति कीर्तिर्भ्रमत्यस्य निर्मलाह्लादकारिणी ॥ १२७ ॥ उत्तिष्ठैवं गृहाणैवं प्रिये पुष्पकरण्डकम् । करोम्यहमपि स्कन्धे सुकुमारमिमं शिशुम् ||१२८||
हाथमें न भोजन है न जो अपना पास परिग्रह रखते हैं तथा जो हस्तरूपी पात्रमें भोजन करते हैं ऐसे निर्ग्रन्थ साधु ही संसार-समुद्रसे पार करते हैं ||११४ || जो अपने शरीरमें भी निःस्पृह हैं तथा जो कभी बाह्य विषयोंमें नहीं लुभाते और मुक्ति के लक्षण अर्थात् चिह्न स्वरूप दिगम्बर मुद्रासे विभूषित रहते हैं उन्हें निर्ग्रन्थ जानना चाहिए' ।। ११५ || इस प्रकार जिसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ था तथा जो मिथ्या दर्शनरूपी मल से रहित थी ऐसी सुशर्मा नामकी ब्राह्मणी पति के साथ बुध ग्रहके साथ भरणी नक्षत्रके समान सुशोभित हो रही थी ।। ११६ ||
तदनन्तर उस ब्राह्मणने हर्षंसे ब्राह्मणीको उन्हीं गुरुके पादमूलमें ले जाकर तथा आदर सहित नमस्कार कर अणुव्रत ग्रहण कराये ॥११७॥ जो पहले आशीविष सांपके समान अत्यन्त उग्र थे ऐसे ब्राह्मणोंके कुल, कपिलको जिनशासनमें अनुरक्त जानकर शान्तिभावको प्राप्त हो गये ॥११८॥ उनमें जो सुबुद्धि थे वे मुनिसुव्रत भगवान् का अत्यन्त सुदृढ़ मत प्राप्त कर श्रावक हो गये तथा इस प्रकार बोले कि हम लोग कर्मोंके भारसे वजनदार थे, अहंकारसे हमारे मस्तक ऊपर उठ रहे थे और हम निरन्तर प्रमादसे युक्त रहते थे परन्तु अब जिनधर्मके प्रसादसे भयंकर नरकमें नहीं जावेंगे ॥११९-१२० || इस जिनशासनको हमने सैकड़ों जन्मोंमें भी नहीं जाना, न प्राप्त किया किन्तु आज अतिशय निर्मल यह जिनशासन रूपी ब्रह्म बड़े कष्टसे प्राप्त किया है ॥ १२१ अब हम मनरूपी होताके साथ मिलकर भावरूपी घीके साथ अपनी कर्मरूपी समिधाओं को ध्यानरूपी देदीप्यमान अग्निमें होमेंगे || १२२ || इस प्रकार मनको स्थिर कर संवेगसे भरे हुए कितने ही ब्राह्मण सर्वपरिग्रहसे विरक्त हो उत्तम मुनि हो गये ||१२३ || परन्तु कपिल श्रावकधर्म में आसक्त रहकर हो उत्तम आचरण करता था। एक दिन वह उत्तम अभिप्राय रखनेवाली ब्राह्मणी से बोला ||२४||कि हे प्रिये ! आज हम लोग, अतिशय बलवान्, विशुद्ध चेष्टाके धारक तथा कमलके समान नेत्रोंसे युक्त उन श्रीरामके दर्शन करनेके लिए रामपुरी क्यों नहीं चलें ? || १२५ ॥ वे भव्य जीवोंपर अनुकम्पा करनेवाले हैं तथा जो निरन्तर आशामें तत्पर रहता है, जिसका मन निरन्तर धनोपार्जनके उपाय जुटानेमें ही लगा रहता है, जो दरिद्रतारूपी समुद्रमें मग्न है, और पेट भरना भी जिसे कठिन है ऐसे दरिद्र मनुष्यका वे उद्धार करते हैं, इस प्रकार आनन्ददायिनी १. याताः स्म म. ज. । २. कमललोचनम् । ३. जन्मदरिद्रम् । इति ज पुस्तके टिप्पणम् ।
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