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पद्मपुराणे
अवगत्य ततस्तस्मात् सन्नह्यान्ये समागताः । प्रावृडमेघसमानेन तेऽपि हासेन निर्जिताः॥६५॥ ततस्तेऽत्यन्तवित्रस्ता म्लेच्छाः पतितकार्मुकाः। कुर्वन्तः परमं रावं गत्वा पत्ये न्यवेदयन् ॥७०! ततोऽसौ परमं क्रोधं वहश्चापं च दारुणम् । निर्जगाम महासैन्यः शस्त्रसन्तमसावृतः ॥७॥ काकोनदा इति ख्याता म्लेच्छास्ते धरणीतले । दारुणाः सर्वमांसादो दर्जयाः पार्थिवैरपि ॥७२॥ तैरावृतां दिशं प्रेक्ष्य पुरो धनकुलासितैः । धनुरारोपयत् कोपं किंचिलक्ष्मीधरो भजन ॥७३।। तथा चास्फालितं सर्ववनमाकम्पितं यथा । ज्वरश्च वनसरवानां जज्ञे प्रकटवेपथुः ।।७४॥ संदधानं शरं वीक्षा लक्ष्मणं त्रस्तचेतसः । बभ्रमुश्चक्रतां प्राप्ता म्लेच्छा निश्चक्षषो यथा ।।५।। ततः साध्वससंपूर्णो म्लेच्छानामधिपो भृशम् । अवतीर्य स्थादेती प्रणम्य रचिताञ्जलिः ॥७६।। अनवीदस्ति कौशाम्बी नगरी प्रथिता प्रभुः । आहिताग्निजिस्तत्र नाम्ना विश्वानलः शुचिः ।।७।। प्रतिसंध्येति तेजाया जातोऽहं तनयस्तयोः । रौद्रभूतिरिति ख्यातः शस्त्रद्यतकलान्वितः ॥७८" बाल्यात् प्रभृति दुष्कर्मनित्यानुष्ठानकोविदः । प्राप्तश्चौर्ये कदाचिच्च शूले भेत्तुमभीप्सितः ॥७९॥ धनिनैकेन तत्राहं श्रद्दधानेन साधुना । मोचितो वेपमानाङ्गः त्यक्त्वा देशमिहागतः ॥८॥ प्राप्तः कर्मानुभावेन काकोनदजनेशताम् । भ्रष्टस्तिष्टामि सद्वृत्तात् पशुभिः समतां गतः ॥८॥ इयन्तं यस्य मे कालं सैन्याख्या अपि पार्थिवाः । चक्षषो गोचरीभावमासन् शक्ता न सेवितुम् ।।८२।। सोऽहं दर्शनमात्रेण कृतो देवेन विक्लवः। धन्योऽस्मि वीक्षितौ येन भवन्तौ पुरुषोत्तमौ ॥८३।।
गयी ॥६७-६८॥ तदनन्तर भागती सेनासे समाचार जानकर दूसरे म्लेच्छ तैयार हो सामने आये परन्तु वर्षाकालीन मेघके समान श्याम लक्ष्मणने उन्हें हँसते-हँसते पराजित कर दिया ॥६९।। तदनन्तर जो अत्यन्त भयभीत थे, जिन्होंने धनुष छोड़ दिये थे और जो जोरसे चिल्ला रहे थे ऐसे उन म्लेच्छोंने जाकर अपने स्वामीसे निवेदन किया ।।७०।। तब परम क्रोध और भयंकर धनुषको धारण करता हुआ म्लेच्छोंका स्वामी निकला। बड़ी भारी सेना उसके साथ थी और वह शस्त्ररूपी अन्धकारसे आच्छादित था ॥७१॥ वे म्लेच्छ पृथिवीपर 'काकोनद' इस नामसे प्रसिद्ध थे, अत्यन्त भयंकर थे, सब जन्तुओंका मांस खानेवाले थे और राजाओंके द्वारा भी दुर्जेय थे |७२।। जब लक्ष्मणने देखा कि आगेकी दिशा मेघसमूहके समान श्यामवर्ण म्लेच्छोंसे आच्छादित हो रही है तब उन्होंने कुछ कुपित हो धनुषकी डोरी चढ़ा ली ।।७३।। और उस प्रकारसे उसका आस्फालन किया कि समस्त वन काँप उठा तथा जंगली जानवरोंको कँपकँपी उत्पन्न करनेवाला ज्वर उत्पन्न हो गया ॥७४॥ लक्ष्मणको डोरीपर बाण चढ़ाते देख जिनका चित्त भयभीत हो गया था ऐसे वे म्लेच्छ नेत्रहीनके समान चक्राकार घूमने लगे ॥७५॥ तदनन्तर अत्यन्त भयसे भरा म्लेच्छोंका स्वामी रथसे उतरकर हाथ जोड़ता हुआ इनके पास आया और प्रणाम कर बोला कि एक कौशाम्बी नामकी प्रसिद्ध नगरी है, निरन्तर अग्निमें होम करनेवाला विश्वानल नामका पवित्र ब्राह्मण उसका स्वामी है। विश्वानलकी स्त्रीका नाम प्रतिसन्ध्या है। मैं उन्हीं दोनोंका पुत्र हूँ, रौद्रभूति नामसे प्रसिद्ध हूँ, शस्त्र तथा जुएके कलाका पारगामी हूँ॥७६-७८॥ मैं बाल्य अवस्थासे ही निरन्तर खोटे कार्य करने में निपुण था। किसी समय चोरीके अपराधमें पकड़ा गया और मुझे शूलीपर चढ़ानेका निश्चय किया गया ।।७९|| शूलीका नाम सुनते ही मेरा शरीर काँप उठा तव विश्वास रखनेवाले एक भले धनिकने जमानत देकर मुझे छुड़वा दिया। तदनन्तर देश छोड़कर मैं यहाँ आ गया ।।८०॥ कर्मोके प्रभावसे इन काकोनद म्लेच्छोंकी स्वामिताको प्राप्त हो गया हूँ तथा सदाचारसे भ्रष्ट हो पशुओंके समान यहाँ रहता हूँ॥८१|| इतने समय तक बड़ी-बड़ी सेनाओंसे युक्त राजा भी जिसके दृष्टिगोचर होनेके लिए समर्थ नहीं हो सके उस मुझको आपने १ मेघसमूहवत्कृष्णैः । २. यज्जाया म.। ३. ध्वनिनकेन म. ।
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