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चतुस्त्रिशत्तमं पर्व
५२९ विबुद्धा तानपश्यन्ती कन्या व्याकुलमानसा । हाकारमुखरा शोकं परमं समुपागता ॥५५॥ महापुरुषयुक्तं ते स्तेनयित्वा मनो मम । गन्तुं निद्रासमेताया निघृणेति मनस्विनी ॥५६॥ कृच्छ्रान्नियम्य शोकं च वरवारणवर्तिनी । प्रविश्य कूवरं तस्थौ पूर्ववद्दीनमानसा ॥५७॥ ततः कल्याणमालाया रूपेण विनयेन च । हृतचित्ताः क्रमेणते प्रापुर्मकलनिम्नगाम् ॥५॥ उत्तीर्य विहितक्रीडास्तां सुखेन मनोहरान् । बहन् देशानतिक्रम्य प्राप्ता विन्ध्यमहाटवीम् ॥५९॥
वर्त्मना । प्रयान्तः पथिकैगोपैः कीनाशैश्च निवारिताः ॥६॥ क्वचि सालादिभिर्वृक्षलतालिङ्गितमूर्तिभिः । तद्वनं शोमतेऽत्यन्तं स्वामोदं नन्दनं यथा ॥६१॥ क्वचिद्दावेन निर्दग्धप्रान्तस्थितमहीरुहम् । न शोभते यथा गोत्रं दुष्पुत्रेण कलङ्कितम् ॥६२॥ अथानोचत् ततः सीता कर्णिकारवनान्तरे । वामतोऽयं स्थितो ध्वाक्षो मूनि कण्टकिनस्तरोः ॥६३॥ वापमानो मुहः करं कलहं कथयत्यरम् । अन्योऽपि क्षीरवृक्षस्थो जयं शंसति वायसः ॥६४॥ तस्मात् तावत् प्रतीक्षेतां मुहूर्त कलहात् परम् । जयोऽपि नैव मे चित्ते प्रतिभात्यतिसुन्दरः ॥६५॥ ततः क्षणं बिलम्ब्यैतौ प्रयातौ पुनरुद्यतौ । तदेव च पुनर्जातं निमित्तं निकटेऽन्तरे ॥६६॥ ब्रवत्या अपि सीताया अवकर्ण्य वचस्ततः । प्रवृत्तौ गन्तुमने च म्लेच्छानां सैन्यमुद्गतम् ॥६॥ तो निरीक्ष्यैव निर्मीतावायान्तौ वरकामुकौ । क्षणेनैकेन तत्सैन्यं कान्दिशीकं पलायितम् ॥६॥
राम-लक्ष्मण छिद्र पाकर वनके उस तम्बूसे बाहर निकल गये ॥५४।। जागनेपर जब कन्याने उन्हें नहीं देखा तब उसका मन बहुत ही व्याकुल हुआ। वह हाहाकार करती हुई परम शोकको प्राप्त हुई ॥५५।। वह मनस्विनी मन ही मन यह कह रही थी कि हे महापुरुष ! मेरा मन चुराकर तथा मुझे सोती छोड़ क्या तुम्हें जाना उचित था? तुम बड़े निर्दय हो ॥५६।। अन्तमें बड़े दुःखसे शोकको रोककर तथा उत्तम हाथीपर सवार हो उसने कूबर नगरमें प्रवेश किया और वहाँ पहलेके समान दीन हृदयसे वह निवास करने लगी ॥५७॥
अथानन्तर कल्याणमालाके रूप और विनयसे जिनके चित्त हरे हो गये थे ऐसे राम, सीता तथा लक्ष्मण क्रम-क्रमसे नर्मदा नदीको प्राप्त हुए ॥५८|| क्रीड़ा करते हुए उस नदीको पार कर तथा अनेक सुन्दर देशोंको उल्लंघन कर वे विन्ध्याचलको महाअटवीं में पहुँचे ॥५९॥ वे बड़ी भारी सेनाके संचारसे खुदे हए मार्गसे जा रहे थे, इसलिए मार्गमें चलनेवाले ग्वालों तथा हलवाहकोंने उन्हें रोका कि इस मागसे आगे न जाओ पर वे रुके नहीं ॥६०॥ बहुत भारी सुगन्धिसे भरा हुआ यह वन कहीं तो लताओंसे आलिंगित सागौन आदिके वृक्षोंसे नन्दनवनके समान अत्यन्त सुशोभित है और कहीं दावानलके कारण समीप स्थित वृक्षोंके जल जानेसे कुपुत्रके द्वारा कलंकित गोत्रके समान सुशोभित नहीं है, इस प्रकार कहते हुए वे आगे बढ़ रहे थे ॥६१-६२॥ तदनन्तर कुछ आगे बढ़नेपर सीताने कहा कि देखो, कनेर वनके बीच में बायीं ओर कंटीले वृक्षकी चोटीपर बैठा कौआ बार-बार क्रूर शब्द कर रहा है सो 'शीघ्र ही कलह होनेवाली है' यह कह रहा है और इधर क्षीर वृक्षपर बैठा दूसरा कोआ 'हम लोगोंकी विजय होगी' यह सूचित कर रहा है ॥६३-६४|| इसलिए आप लोग मुहूर्तमात्र प्रतीक्षा कर लें क्योंकि कलहान्तर जय प्राप्त करना भी मेरे मनमें बहुत अच्छा नहीं जंचता ॥६५॥ तदनन्तर क्षण-भर विलम्ब कर वे पुनः आगे गये तो कुछ ही अन्तर पर वही निमित्त फिर हुआ ॥६६।। यद्यपि सीता कह रही थी फिर भी उसका कहा अनसुना कर राम-लक्ष्मण आगे बढ़ते गये। कुछ दूरी पर उन्हें म्लेच्छोंकी सेना मिली, सो उत्तम धनुषके धारक तथा निर्भय राम-लक्ष्मणको आते देख वह सेना भयभीत हो क्षण-भरमें भाग १. निद्रां समेतायां म.। २. नर्मदा । ३. परिक्षणेन (?) म.। ४. हलिभिः। ५. निर्दग्धं प्रान्त म.। ६. कण्टकितस्तरी म.। ७. शब्दं कुर्वन् । ८. परः म. ।
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