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पद्मपुराणे उक्तं च स्वामिना तस्य सिंहोदरमहीभृता । पुत्रश्चेद् मविता गर्ने कर्ता राज्यमसाविति ॥४१॥ ततोऽहं पापिनी जाता मन्त्रिणा वसुबुद्धिना' । सिंहोदराय पौंस्नेन कथिता राज्यकाङ्क्षया ॥४२॥ नीता कल्याणमालाख्यां जनन्या रहितार्थिकाम् । प्रायो माङ्गलिके लोको व्यवहारे प्रवर्तते ॥४३॥ मन्त्री माता च मे वेत्ति कन्येयमिति नापरः । इयन्तं कालमधुना भवन्तः पुण्यवीक्षिताः ॥४४॥ दुःखं तिष्टति मे तातः प्राप्तश्चारकवासिताम् । सिंहोदरोऽपि नो सक्तस्तस्य कतु विमोचनम् ॥४५॥ यदा द्रविणं किंचिद्देशे समुपजायते । तन्म्लेच्छस्वामिने सर्व प्रेप्य ते दुर्गमीयुषे ॥४६।। वियोगाधिनात्यन्तं तप्यमाना ममाम्बिका । जाता कलावशपेव चन्द्रमूर्तिर्गतप्रभा ॥४७॥ इत्युक्त्वा दुःखभारेण पीडिताशेषगात्रिका । सद्यो विच्छायतां प्राप्ता मुक्तकण्ठं रुरोद सा ॥४८॥ अत्यन्तयधुरैर्वाक्यैः पद्मनाश्वासिता ततः । सीतया व निधायात्र कुर्वन्त्या मुखधावनम् ।।४५॥ सुमिन्दालू नुना चोक्ता शुचं विसृज सुन्दरि । कुरु राज्यमनेनैव वेषेणोचितकारिणी ॥५०॥ कामे कांश्चिटातीक्षस्व दिवसान् धैर्यसङ्गतान् । म्लेच्छेन ग्रहणं किं मे पितरं पश्य मोचितम् ॥५१॥ इत्युको परमं तोषं ताले मुक्त इवागता । समुल्लसितसर्वाङ्गा कन्यका धुतिपूरिता ॥५२॥ तत्र ते कानने रम्ये विचित्रालापविभ्रमाः । देवा इव सुखं तस्थुः स्वच्छन्दा दिवसत्रयम् ॥५३॥ ततः सप्तजने काले रजन्यां रामलक्ष्मणौ । ससीतौ रन्ध्रमाश्रित्य निष्क्रान्तौ काननालयात् ।।५४।।
म्लेच्छ राजाके साथ युद्ध हुआ, सो युद्धमें म्लेच्छ राजाने उसे पकड़ लिया ॥४०॥ राजा सिंहोदर बालखिल्यके स्वामी हैं सो उन्होंने कहा कि बालखिल्यकी रानी गर्भवती है यदि उसके गर्भमें पत्र होगा तो राज्य करेगा ।।४१।। तदनन्तर दुर्भाग्यसे पुत्र न होकर मैं पापिनी पुत्री उत्पन्न हुई परन्तु वसुबुद्धि मन्त्रीने राज्यकी आकांक्षासे सिंहोदरके लिए पुत्र उत्पन्न होने की खबर दी ।।४२।। माताने मेरा कल्याणमाला यह अर्थहीन नाम रखा, सो ठीक ही है क्योंकि लोग प्रायः मंगलमय व्यवहारमें ही प्रवृत्त होते हैं ।।४३॥ अबतक मन्त्री और मेरी भाता ही जानती है कि यह कन्या है दूसरा नहीं। आज पुण्योदयसे आप लोगोंके दर्शन हुए ॥४४॥ बन्दीगृहके निवासको प्राप्त हुए हमारे पिता बहुत कष्टमें हैं। सिंहोदर भी उन्हें छुड़ानेके लिए समर्थ नहीं है ॥४५|| इस देशमें जो कुछ धन उत्पन्न होता है वह सब दुगंकी रक्षा करनेवाले म्लेच्छ राजाके लिए भेज दिया जाता है ।।४६।। वियोगरूपी अग्निसे अत्यन्त सन्तापको प्राप्त हुई मेरी माता सूखकर कला मात्रसे अवशिष्ट चन्द्रमाके समान कान्तिहीन हो गयी है ।।४७|| इतना कहकर दुःखके समान भारसे जिसका समस्त शरीर पीड़ित हो रहा था ऐसी वह कल्याणमाला शीघ्र ही कान्ति रहित हो गयी तथा गला फाड़कर रोने लगी ॥४८॥
तदनन्तर रामने अत्यन्त मधुर शब्दोंमें उसे सान्त्वना दी; सीताने गोदमें बैठाकर उसका मंह धोया और लक्ष्मणने कहा कि हे सुन्दरि ! शोक छोड़ो, इसी वेषसे राज्य करो, तुम उचित कार्य कर रही हो ॥४९-५०॥ हे शुभे ! हे कल्याणरूपिणी! धैर्य के साथ कुछ दिन तक प्रतीक्षा करो। मेरे लिए म्लेच्छराजका पकड़ना कौनसी बात है ? तुम शीघ्र ही अपने पिताको छूटा देखोगी ।।५१।। इस प्रकार कहनेपर उसे इतना सन्तोष हुआ मानो पिता छूट ही गया हो। उस कन्याके समस्त अंग हर्षसे उल्लसित हो उठे और वह कान्तिसे भर गयी ॥५२॥ तदनन्तर उस मनोहर वनमें नाना प्रकारका वार्तालाप करते हुए वे सब तीन दिन तक देवोंके समान स्वतन्त्र हो सुखसे रहे ॥५३।। तत्पश्चात् रात्रिके समय जब सब लोग सो गये तब सीता सहित १. सुबुद्धिना म.। च सबुद्धिना क., ख.1 २. रहितार्थिकं म.। ३. प्राप्तो म.। ४. प्रेक्ष्यते म.। ५. सुपूजने म.।
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