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चतुस्त्रिशतमं पर्व
१२७ छेकहंसाश्चिरं त्रस्ताश्चक्षुषी समचूकुचन् । लक्ष्मीरिव स्थिता साक्षात् श्रीरिवोज्झितपङ्कजा ॥२९॥ गृहं प्लावितुमारब्धामिव लावण्यवारिधी । उत्कीर्णामिव रवानां रजसा काञ्चनस्य वा ॥३०॥ कल्लोला इव निर्जग्मुः स्तनाभ्यां कान्तिवारिणः । तरङ्गा इव संजाता मध्ये त्रिवलिराजिते ॥३१॥ 'चण्डातकं समुद्भिद्य जघनस्य घनं महः । निर्जगामापरं छातं जीमूतं शशिनो यथा ॥३२॥ सुचिरं प्रथितं लोके 'चञ्चलत्वायशोमलम् । गृहजीमूतवर्तिन्या निधीतमिव विधुता ॥३३॥ अत्यन्तस्निग्धया तन्व्या रोमराज्या विराजिता । नितम्बाजातया हैमान् महानीलत्विषा यथा ॥३४॥ ततोऽसौ सहसामुक्तनररूपा सुलोचना । दौकिता जानकी तेन रतिश्रीरिव लजया ॥३५॥ अन्ते लक्ष्मणस्तत्र परिष्वको मनोभुवा । अवस्थां कामपि प्रापञ्चलमन्थरलोचनः ॥३६॥ ततो विशुद्धया बुद्धया पद्मस्तामित्यभाषत । दधाना विविधं वेषं का त्वं क्रीडसि कन्यके ।।३७॥ ततोऽशंकेन संवीय गात्रं प्रवरभाषिणी । जगाद देव ! वृत्तान्तं शृणु सद्भाववेदिनम् ॥३८॥ बालिखिल्य इति ख्यातः पुरस्यास्य पतिः सुधीः । सदाचारपरो नित्यं मुनिवल्लोकवत्सलः ॥३९॥ पृथिवीति प्रिया तस्य गर्भाधानमुपागता । म्लेच्छाधिपतिना चासौ गृहीतः संयुगे नृपः ॥४०॥
कान्तिसे लिप्त हुआ कपड़ेका तम्बू ऐसा दीखने लगा मानो उसमें आग ही लग गयी हो तथा लज्जासे युक्त मन्द मुसकानकी किरणोंसे लिप्त होनेपर ऐसा जान पड़ने लगा मानो उसमें चन्द्रमाका ही प्रकाश फैल गया हो ॥२८॥ उसे देख, चतुर हंसोंने चिरकाल तक भयभीत हो अपने नेत्र संकुचित कर लिये। वह कन्या ऐसी जान पड़ती थी मानो कमलको छोड़कर साक्षात् लक्ष्मी ही वहाँ आ बैठी हो ॥२९।। उसकी कान्तिसे वह घर ऐसा मालूम होता था मानो सौन्दर्यके सागर में उसने तैरना ही शुरू किया हो अथवा रत्नों और स्वर्णकी परागसे मानो आच्छादित ही किया गया हो ॥३०॥ उसके स्तनोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो कान्तिरूपी जलके कल्लोल ही निकल रहे हों और त्रिबलिसे शोभित मध्यभागमें ऐसा लगता था मानो तरंगें ही उठ रही हों ॥३॥ जिस प्रकार मेघके पतले आवरणको लाँघकर चन्द्रमाका प्रकाश बाहर फट पड़ता है उसी प्रकार लॅहगाको भेदकर उसके नितम्बस्थलका सघन तेज वाहर फूट पड़ा था ॥३२॥ वह घर, एक मेघके समान जान पड़ता था और उसमें बैठी हुई वह कन्या बिजलीके समान प्रतिभासित होती थी। ऐसा लगता था कि लोकमें चंचलताके कारण बिजलीके यशमें जो मल चिरकालसे लगा हुआ था उसने उसे बिलकुल ही धो डाला था ॥३३॥ वह स्वर्णनिर्मितकी तरह देदीप्यमान नितम्बस्थलसे उत्पन्न महानीलमणिके समान श्याम, अत्यन्त चिकनी एवं पतली रोमराजिसे सुशोभित थी ॥३४॥ तदनन्तर जिसने सहसा पुरुषका वेष छोड़ दिया था तथा जिसके नेत्र अत्यन्त सुन्दर थे, ऐसी वह कन्या सीताके पास आ बैठी जिससे वह उस प्रकार सुशोभित होने लगी जिस प्रकारकी लज्जासे रतिकी श्री सुशोभित होती है ॥३५।। लक्ष्मण उसके पास ही बैठे थे, सो कामसे युक्त हो किसी अनिर्वचनीय अवस्थाको प्राप्त हए। उस समय उनके चंचल नेत्र धीरे-धीरे चल रहे थे ॥३६॥ तदनन्तर निर्मल वुद्धिसे युक्त रामने उससे इस प्रकार कहा कि हे कन्ये ! विविध वेषको धारण करनेवाली तू कौन है ? जो इस तरह कोड़ा करती है ? ॥३७|| उसके उत्तरमें मधुर भाषण करनेवाली कन्याने वस्त्रसे शरीर ढंककर कहा कि हे देव ! सद्भावको सूचित करनेवाला मेरा वृत्तान्त सुनिए ।॥३८॥
इस नगरका स्वामी 'बालिखिल्य' इस नामसे प्रसिद्ध है जो अतिशय बुद्धिमान्, मुनियों के समान निरन्तर सदाचारका पालन करनेवाला और लोगोंके साथ स्नेह करनेवाला है ॥३९॥ उसकी प्रियाता नाम पृथियी है। जिस समय पृथिवी गर्भाधानको प्राप्त हुई उसी समय राजा बालखिल्यका १. 'लहँगा' इति प्रसिद्ध स्त्रीवस्त्रम् । २. चञ्चलवायसीमलं (?) म. । ३. ९च्या म.। ४. रति श्रीरिव म
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