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चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व
परम सुन्दरे तत्र फलपुष्पभरानते । गुञ्जभ्रमरसंघाते मत्तकोकिलनादिते ॥१॥ कानने सीतया साकमग्रजन्मा स्थितः सुखम् । अन्तिकां सलिलार्थी तु लक्ष्मणः सरसीं गतः ॥२॥ अत्रान्तरे सुरूपान्यो नेत्रतस्करविभ्रमः । एकोऽपि सर्वलोकस्य हृदयेषु समं वसन् ॥३।। महाविनयसंपन्नः कान्तिनिर्झरपर्वतः । वरवारणमारूढश्चारुपादातमध्यगः ॥४॥ तामेव सरसी रम्या क्रीडनाहितमानसः । प्राप्तः कल्याणमालाख्यो जनस्तन्नगराधिपः ॥५॥ महतः सरसस्तस्य दृष्ट्वा तं तीरवर्तिनम् । नीलोत्पलचयश्याम लक्ष्मणं चारुलक्षणम् ॥६॥ ताडितः कामबाणेन स जनोऽत्यन्तमाकुलः । मनुष्यमब्रवीदेकमयमानीयतामिति ॥७॥ गत्वा कृत्वाञ्जलीदक्षः स तमेवमभाषत । एह्ययं राजपुत्रस्ते प्रसादात् संगमिच्छति ॥८॥ को दोष इति संचिन्त्य दधानः कौतुकं परम् । जगाम लीलया चाा समीपं तस्य लक्ष्मणः ॥९॥ उत्तीर्य स जनो नागात् पद्मतुल्येन पाणिना। करे लक्ष्मणमालम्ब्य प्राविशद् गृहमाम्बरम् ॥१०॥ एकासने च तेनातिप्रतीतः सहितः स्थितः। अपृच्छच्च सखे कस्त्वं कुतो वा समुपागतः ॥११॥ सोऽवोचद विप्रयोगान्मे ज्येष्ठो दुःखेन तिष्ठति । तावन्नयामि तस्यान्नं कथयिष्यामि ते ततः ॥१२॥ ततः शाल्योदनः सूप उपदंशनवं घृतम् । अपूपा घनबन्धानि व्यअनानि पयो दधि ॥१३॥
अथानन्तर जो फल और फूलोंके भारसे नत हो रहा था, जहां भ्रमरोंके समूह गूंज रहे थे और जहाँ मत्त कोकिलाएं शब्द कर रही थीं ऐसे अत्यन्त सुन्दर वनमें राम तो सुखसे विराजमान थे और लक्ष्मण पानी लेनेके लिए समीपवर्ती सरोवरमें गये ॥१-२॥ इसी अवसरमें जो अत्यन्त सुन्दर रूपसे सहित था, जिसके विभ्रम नेत्रोंको चुरानेवाले थे, जो एक होनेपर भी सर्व लोगोंके हृदयमें एक साथ निवास करता था, महाविनय सम्पन्न था। कान्तिरूपी निर्झरके उत्पन्न होनेके लिए पर्वतस्वरूप था, उत्तम हाथीपर सवार था। मनोहर पैदल सैनिकोंके बीच चल रहा था, जिसका मन क्रीडा करने में लीन था। जिसका कल्याणमाला नाम था तथा जो उस नगरका स्वामी था, ऐसा एक पुरुष उसी सरोवरमें क्रीड़ा करनेके लिए आया ॥३-५|| सो उस महासरोवरके तटपर विद्यमान, नील कमलोंके समूहके समान श्याम और सुन्दर लक्षणोंसे युक्त लक्ष्मणको देख वह मनुष्य कामबाणसे ताड़ित होकर अत्यन्त आकुल हो गया। फलस्वरूप उसने अपने एक आदमीसे कहा कि इस पुरुषको ले आओ ॥६-७|| वह चतुर मनुष्य जाकर तथा हाथ जोड़कर लक्ष्मणसे इस प्रकार बोला कि 'आइए, यह राजकुमार प्रसन्नतासे आपके साथ मिलना चाहता है' ||८|| 'क्या दोष है' इस प्रकार विचारकर परम कौतुकको धारण करते हुए लक्ष्मण सुन्दर लीलासे उसके पास गये ।।९।। तदनन्तर वह राजकुमार हाथीसे उतरकर तथा कमलके समान कोमल हाथसे लक्ष्मणको पकड़ अपने वस्त्र निर्मित तम्बूमें भीतर चला गया ||१०|| वहाँ अत्यन्त विश्वस्त हो एक ही आसनपर लक्ष्मणके साथ सुखसे बैठा। कुछ समय बाद उसने लक्ष्मणसे पूछा कि हे सखे ! तम कौन हो? और कहाँसे आये हो ? ॥१२॥ लक्ष्मणने कहा कि मेरे वियोगसे मेरे बडे भाई दःखी होंगे इसलिए मैं पहले उनके पास भोजन ले जाता हूँ पश्चात् तुम्हारे लिए सब समाचार कहूँगा ॥१२॥ अथानन्तर शालिके चावलोंका भात, दाल, ताजा घृत, पुए, घेवर, नानाप्रकारके व्यंजन, दूध, दही, अनेक प्रकारके पानक, शक्कर और खाँडके लड्डू, पूड़ियां, कचौड़ियां, साधारण पूड़ियां, १. रामः । २. दृष्टा म. । ३. वस्त्रनिर्मितम् । ४. उपदेशनवं म. । ५. 'धेवर' इति प्रसिद्धानि ।
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