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पद्मपुराणे पानकानि विचित्राणि शर्कराखण्डमोदकाः' । शकुल्यो घृतपूर्णानि पूरिका गुडपूर्णिकाः ॥१४॥ वस्त्रालंकारमाल्यानि लेपनप्रभृतीनि च । अमत्राणि च चित्राणि हस्तमार्जनकानि च ॥१५॥ सर्वमेतत् सभासन्नपुरुषैः सुमहाजचैः । माबिनानायितं तेन जनेनान्तिकमात्मनः ॥१६॥ अन्तरङ्गः प्रतीहारो जनस्य वचनात् ततः । गत्वा सीतान्वितं पद्मं प्रणम्यैवमभाषत ॥१७॥ अमन्मिन् वस्त्रमवने नाता ते देव तिति । एतजगरनाथश्व विज्ञापयति सादरः ॥१८॥ प्रसादं कुरु तच्छाया शोतलेयं मनोहरा । तस्मादियन्तमध्यानं स्वेच्छया गन्तुमर्हथ ।।१९।। हत्यके सीतया साधं ज्योत्स्नयेव निशाकरः । पन्नः समाययो बिभ्रन् मत्तद्विरदविभ्रमम् ॥२०॥ दरादेव समालोक्य लक्ष्मणेन ससं ततः । अभ्युत्थानं चकारास्य जनः प्रत्युद्गतिं तथा ॥२१॥ सीतया सहितस्तस्थौ पद्मोऽत्यन्तवरासने । अर्घदानादिसन्मानं प्राप्तश्च जनकल्पितम् ॥२२॥ ततः कर्मणि निर्वते स्वैरं स्नानाशनादिके । समुत्साखिलं लोकमात्मा नीतस्तुरीयताम् ।।२३।। दतः पितः सकाशान्मे प्राप्त इत्युपदेशनः । प्रयत्नपरमं कश्यां प्रविश्यानन्यगोचराम् ॥२४॥ नानाप्रहरणान् वीरान् नियुज्य द्वारि भूयसः । प्रविष्टो योऽत्र बध्योऽसौ ममेति कृतभाषणः ॥२५॥ सद्भावज्ञापने लजां दूरीकृत्य सुमानसः । व्यपाटयदलौ तेषां समक्षं कञ्चुकं जनः ॥२६॥ स्वर्गादिव तपोऽपप्तत् काऽप्यसौ वरकन्यका । उपयातेव पातालात् किंचिल्लज्जानतानना ॥२७॥ तत्कान्त्या भवनं लिप्तं लग्नानलमिवाभवत् । उद्योतमिव चन्द्रेण लज्जास्मितसितांशुभिः ॥२८॥
गडमिश्रित पूड़ियाँ, वस्त्र, अलंकार, मालाएं, लेपन आदिकी सामग्री, नानाप्रकारके बर्तन और हाथ धोनेका सामान, यह सब सामग्री निकटवर्ती शीघ्रगामी पुरुष भेजकर उसने अपने पास मंगवा ली ॥१३-१६।। तदनन्तर उसकी आज्ञा पाकर अन्तरंग द्वारपाल वहाँ गया जहां सीता सहित राम विराजमान थे, सो उन्हें प्रणाम कर वह इस प्रकार बोला ||१७|| कि हे देव ! उस तम्बमें आपके भाई विराजमान हैं वहीं इस नगरका राजा भी विद्यमान है सो वह आदरके साथ प्रार्थना करता है कि चूंकि इस तम्बूको छाया शीतल तथा मनको हरण करनेवाली है इसलिए प्रसन्न होइए और इतना मार्ग स्वेच्छासे चलकर आप यहाँ पधारिए ॥१८-१९|| प्रतिहारीके इतना कहने पर मत्त हाथीकी शोभाको धारण करते हुए रामचन्द्र सीताके साथ कल पड़े उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे मानो चांदनीके सहित चन्द्रमा ही हों ॥२०॥ रामको दूरसे ही आते देख राजकुमारने लक्ष्मणके साथ खड़े होकर तथा कुछ आगे जाकर उनका स्वागत किया ||२१|| राम सीताके साथ अत्यन्त उत्कृष्ट आसन पर विराजमान हए तथा राजकुमारके द्वारा प्रदत्त अघंदान आदि सम्मानको प्राप्त हए ।।२२।। तदनन्तर इच्छानुसार स्नान, भोजन आदि समस्त कार्य समाप्त होनेपर राजकुमारने अन्य सब लोगोंको दूर कर दिया। वहाँ राम, लक्ष्मण, सीता तीन और चौथा राजकुमार ये ही चार व्यक्ति रह गये ।।२३। 'मेरे पिताके पाससे दूत आया है' ऐसा कहता हुआ वह राजकुमार प्रयत्नपूर्वक सजाये हुए एक दूसरे कमरे में गया। वहाँ उसने नाना प्रकारके शस्त्र धारण करनेवाले अनेक योद्धाओंको द्वारपर नियुक्त कर यह आदेश दिया कि यहाँ जो कोई प्रवेश करेगा वह मेरे द्वारा वध्य होगा ।।२४-२५॥
तदनन्तर यथार्थ भावके प्रकट करने में जो लज्जा थी उसे दूर कर उस सुचेताने राम, लक्ष्मण और सीताके सामने बीचका आवरण फाड़ डाला ॥२६॥ तत्पश्चात् आवरणके दूर होते ही ऐसा लगने लगा मानो स्वर्गसे ही कोई उत्तम कन्या नोचे आकर पड़ी है। अथवा पातालसे ही निकली है। उस कन्याका मुख लज्जाके कारण कुछ नम्रीभूत हो रहा था ।।२७।। उसकी १. मोदकान् म.। २. पात्राणि । ३. समासन्नपुरुषैः क., ख.। समहाजपः म.। ५. इत्युपदेशतः क., ख., प्रसन्नः परमो -म.। ६. मध्योऽसौ समेति म., ख.।
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