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एकत्रिंशत्तमं पर्व
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जनस्योत्सार्यमाणस्य 'वरूथिन्यो नरोत्तमैः । वीचयः सागरस्येव विक्षोभ्यन्ते महानिलैः ॥२१७॥ भक्तिभिः पूज्यमानोऽपि संभाषणसमुद्यतः । दाक्षिण्यपरमः पद्मो मेने विघ्नं पदे पदे ॥२१८॥ असक्त इव तं द्रष्टुमसमअसमीदृशम् । मन्दं मन्दांशुसङ्घातो रविरस्तमुपागमत् ॥२१९॥ रविणा दिवसस्यान्ते त्यक्ताः सर्वमरीचयः । ज्येष्ठचक्रधरेणेव संपदो मुक्तिमिच्छता ॥२२०॥ दधाना परमं रागमुचिताम्बरयोगिनी । अन्वियाय रविं संध्या सीता दाशरथिं यथा ॥२२१॥ ततो विशेषविज्ञानविध्वंसनविधायिना । रामवज्योद्भवेनेव तमसा व्याततं जगत् ॥२२२॥ अनुप्रयातुकामस्य कतु लोकस्य वञ्चनम् । ससीतौ तावरेशस्य स्थान प्राप्तौ क्षपामुखे ॥२२३॥ भवान्तकस्य भवनं नित्यालंकृतपूजितम् । चन्दनाम्भोऽनुलिप्तक्ष्म त्रिद्वारं तुङ्ग-तोरणम् ॥२२॥ दर्पणादिविभूषं तत्ससीतौ सप्रदक्षिणम् । प्रविष्टावनपेक्षौ तौ यथाविधि विशारदौ ॥२२५॥ तृतीये तु जनो द्वारे प्रतिहारेण रुध्यते । कर्मणा मोहनीयेन शिवमिच्छन् कुदृष्टिवत् ॥२२६॥ स्थापयित्वा धनुर्वम पुण्डरीकनिभेक्षणी । जिनेन्द्रवदनं दृष्ट्वा तौ वरां तिमागतौ ॥२२७॥ मणिपीठस्थितं सौम्यं प्रलम्बितभुजद्वयम् । श्रीवत्समासुरोरस्कं व्यक्तनिश्शेषलक्षणम् ॥२२८॥
मनुष्योंके आंसुओंसे पंकिल अर्थात् कर्दमयुक्त हो गयी थीं ।।२१६।। जिस प्रकार महापवनसे समुद्रकी लहरें क्षोभको प्राप्त होती हैं उसी प्रकार उत्तम मनुष्योंके द्वारा दूर हटाये गये लोगोंकी पंक्तियां क्षोभको प्राप्त हो रही थीं ॥२१७।। लोग पद-पदपर भक्तिवश रामकी पूजा करते थे और भक्तिवश उनके साथ वार्तालाप करनेके लिए उद्यत होते थे सो अत्यन्त सरल प्रकृतिके धारक राम उसे विघ्न मानते थे ॥२१८॥
तदनन्तर धीरे-धीरे जिसकी किरणें मन्द पड़ गयी थीं ऐसा सूर्य अस्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो वह इस अनुचित कार्यको देखनेके लिए असमर्थ होनेसे ही अस्त हो गया था ॥२१९|| जिस प्रकार मुक्तिकी इच्छा करनेवाले प्रथम चक्रवर्ती भरतने सब सम्पत्तियां छोड़ दी थीं उसी प्रकार दिनके अन्त में सूर्यने सब किरणें छोड़ दीं ॥२२०॥ जिस प्रकार परम राग
उत्कृष्ट प्रेमको धारण करनेवाली तथा उचित-अम्बर अर्थात योग्य वस्त्रसे सशोभित सीता रामके पीछे जा रही थी उसी प्रकार परम राग अर्थात् उत्कृष्ट लालिमा और उचित-अम्बर अर्थात् अभ्यस्त आकाशके समागमको प्राप्त सन्ध्या सूर्यके पीछे जा रही थी ॥२२१।। तदनन्तर वस्तुओंके विशेष ज्ञानको नष्ट करनेवाले अन्धकारसे समस्त जगत् व्याप्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो रामके जानेसे उत्पन्न शोकसे ही व्याप्त हो गया हो ॥२२२।। तत्पश्चात् पीछे चलनेके लिए उत्सुक मनुष्योंको धोखा देनेके लिए सीता सहित वे दोनों कुमार सायंकालके समय अरहनाथ भगवान्के मन्दिर में पहुँचे ॥२२३।। संसारको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्र भगवान्का वह मन्दिर सदा अलंकृत रहता था, लोग उसकी निरन्तर पूजा करते थे, चन्दनके जलसे वहाँकी भूमि लिप्त रहती थी, उसमें तीन दरवाजे थे, ऊंचा तोरण था और दर्पणादि मंगल द्रव्योंसे वह विभूषित रहता था। सो अतिशय बुद्धिमान् तथा अन्यकी अपेक्षासे रहित राम-लक्ष्मणने सीताके साथ प्रदक्षिणा देकर उस मन्दिरमें विधिपूर्वक प्रवेश किया ॥२२४-२२५॥ दो दरवाजे तक तो सब मनुष्य चले गये परन्तु तीसरे दरवाजेपर द्वारपालने उन्हें उस प्रकार रोक दिया जिस प्रकारको मोक्षकी इच्छा करनेवाले मिथ्यादष्टिको मोहनीय कर्म रोक देता है ॥२२६।। कमलके समान नेत्रोंको धारण करने वाले राम-लक्ष्मण, अपने धनुष तथा कवच एक ओर रख भगवान के दर्शन कर परम सन्तोषको प्राप्त हुए ॥२२७॥ तदनन्तर जो मणिमयी चौकीपर विराजमान थे, सौम्य थे, जिनकी दोनों १. पङ्क्तयः । विरूपिण्यो म.। २. प्रथमचक्रवतिना भरतेन । ३. तो + अरेशस्य = अरनाथस्य स्थान मन्दिरम् । ४. चन्दनाम्भोजलिप्तक्ष्म ।
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