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द्वात्रिंशत्तमं पर्व
आहारदानपुण्येन जायते भोगनिर्मरः । विदेशमपि यातस्य सुखिता तस्य सर्वदा || १५४ || अभीतिदानपुण्येन जायते भयवर्जितः । महासंकटयातोऽपि निरुपद्रवविग्रहः ॥ १५५ ॥ जायते ज्ञानदानेन विशालसुखभाजनम् । कलार्णवामृतं चासौ गण्डूषं कुरुते नरः ।। १५६ ।। यः करोति विभावर्यामाहार परिवर्जनम् । सर्वारम्भप्रवृत्तोऽपि यात्यसौ सुखदां गतिम् ।। १५७ ।। वदनं यो जिनेन्द्राणां त्रिकालं कुरुते नरः । तस्य भावविशुद्धस्य सर्वं नश्यति दुष्कृतम् ॥१५८|| सामोदैभूजलोद्भूतैः पुष्पैर्यो जिनमर्चति । विमानं पुष्पकं प्राप्य स क्रीडति यथेप्सितम् ॥। १९९ ।। भावपुष्पैर्जिनं यस्तु पूजयत्यतिनिर्मलैः । लोकस्य पूजनीयोऽसौ जायतेऽस्यन्तसुन्दरः ॥ १६० ॥ धूपं यश्चन्दनाशुभ्रागुर्वादिप्रभवं सुधीः । जिनानां ढौकयत्येष जायते सुरभिः सुरः ।। १६१।। यो जिनेन्द्रालये दीपं ददाति शुभभावतः । स्वयंप्रमशरीरोऽसौ जायते सुरसद्मनि ॥ १६२ || छत्रचामरलम्बुषपताकादर्पणादिभिः । भूषयित्वा जिनस्थानं याति विस्मयिनीं श्रियम् ॥ १६३ ॥ समालभ्य जिनान् गन्धैः सौरभ्यव्याप्तदिङ्मुखैः । सुरभिः प्रमदानन्दो जायते दयितः पुमान् ।।१६४ || अभिषेकं जिनेन्द्राणां कृत्वा सुरभिवारिणा । अभिषेकमवाप्नोति यत्र यत्रोपजायते ।। १६५ || अभिषेकं जिनेन्द्राणां विधाय क्षीरधारया । विमाने क्षीरधवले जायते परमद्युतिः ॥ १६६ ॥ दधिकुम्भैर्जिनेन्द्राणां यः करोत्यभिषेचनम् । दध्याभकुट्टमे स्वर्गे जायते स सुरोत्तमः ॥१६७॥ सर्पिषा जिननाथानां कुरुते योऽभिषेचनम् । कान्तिद्युतिप्रभावाढ्यो विमानेशः स जायते ॥१६८॥
ग्रहकी सीमा नियत कर भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान्की अर्चा करता है वह अतिशय विस्तृत लाभको प्राप्त होता है तथा लोग उसकी पूजा करते हैं || १५३ || आहार- दानके पुण्यसे यह जीव भोग-निर्भर होता है अर्थात् सब प्रकारके भोग इसे प्राप्त होते हैं । यदि यह परदेश भी जाता है तो वहाँ भी उसे सदा सुख ही प्राप्त होता है || १५४ || अभयदान के पुण्यसे यह जीव निर्भय होता है और बहुत भारी संकट में पड़कर भी उसका शरीर उपद्रवसे शून्य रहता है ॥ १५५ ॥ ज्ञानदान से यह जीव विशाल सुखोंका पात्र होता है और कलारूपी सागरसे निकले हुए अमृतके कुल्ले करता है ॥१५६॥ जो मनुष्य रात्रिमें आहारका त्याग करता हैं वह सब प्रकार के आरम्भ में प्रवृत्त रहनेपर भी सुखदायी गतिको प्राप्त होता है ॥ १५७ ॥ जो मनुष्य तीनों कालमें जिनेन्द्रभगवान्की वन्दना करता है उसके भाव सदा शुद्ध रहते हैं तथा उसका सब पाप नष्ट हो जाता है || १५८ ॥ जो पृथिवी तथा जलमें उत्पन्न होनेवाले सुगन्धित फूलोंसे जिनेन्द्र भगवान्की अर्चा करता है वह पुष्पक विमानको पाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करता है || १५९ || जो अतिशय निर्मल भावरूपी फूलों से जिनेन्द्रदेवकी पूजा करता है वह लोगोंके द्वारा पूजनीय तथा अत्यन्त सुन्दर होता है ||१६|| जो बुद्धिमान् चन्दन तथा कालागुरु आदिसे उत्पन्न धूप जिनेन्द्रभगवान् के लिए चढ़ाता है वह मनोज्ञ देव होता है || १६१|| जो जिनमन्दिर में शुभ भावसे दीपदान करता है वह स्वर्ग में देदीप्यमान शरीरका धारक होता है || १६२ || जो मनुष्य छत्र, चमर, फन्नूस, पताका तथा दर्पण आदि द्वारा जिनमन्दिरको विभूषित करता है वह आश्चर्यकारक लक्ष्मीको प्राप्त होता है ॥ १६३॥ जो मनुष्य सुगन्धिसे दिशाओंको व्याप्त करनेवाली गन्धसे जिनेन्द्रभगवान्का लेपन करता है वह सुगन्धिसे युक्त, स्त्रियोंको आनन्द देनेवाला प्रिय पुरुष होता है || १६४ || जो मनुष्य सुगन्धित जलसे जिनेन्द्रभगवान् का अभिषेक करता है वह जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ अभि
को प्राप्त होता है || १६५ || जो दूधकी धारासे जिनेन्द्रभगवान्का अभिषेक करता है वह दूधके समान धवल विमानमें उत्तमकान्तिका धारक होता है || १६६ || जो दहीके कलशोंसे जिनेन्द्रभगवान् का अभिषेक करता है वह दहीके समान फवाले स्वर्गं में उत्तम देव होता है || १६७ || जो १. रत्यं म । २. सुगन्धियुक्तः ।
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