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त्रयस्त्रिशत्तमं पर्व
११९ कार्मुकं क्षिप मुञ्चाश्वं वारणादवतीर्यताम् । गदां निरस्य गर्तायां माकार्षीरवमुन्नतम् ।।२५४।। आलोक्य शस्त्रसङ्घातं श्रुत्वा वा रमसान्वितः । कोऽप्येष पुरुषोऽस्माकमापप्तदतिदारुणः ॥२५५।। अपसर्पामुतो देशादेहि मार्गमहो भट । वारणं सारयैतस्माकिमत्र स्तम्भितोऽसि ते ॥२५६॥ अयं प्राप्तोऽयमायातो दुःसूत स्यन्दनं त्यज । तुरङ्गाश्वोदय क्षिप्रं घातिता स्मो न संशयम् ॥२५७॥ एवमादिकृतालापाः केचिरसङ्कटमागताः । परित्यज्य मैटाकल्पमेते पण्डकवत् स्थिताः ॥२५७।। किमेष रमते युद्धे कोऽपि त्रिदशसंमवः । विद्याधरो तु वान्यस्य कस्येयं शक्तिरीदृशी ॥२५९।। कालो नाम यमो वायुः कोऽपि लोके प्रकीय॑ते । सोऽयं किमु मवेच्चण्डो विद्युद्दण्डचलाचलः ॥२६॥ कृत्वेदमीदृशं सैन्यं पुनरेष करिष्यति । किमित्येवं मनोऽस्माकं नाथ शङ्कामुपागतम् ॥२६॥ "निरीक्षस्वैनमुत्पत्य संग्रामे रोमहर्षणे । सिंहोदरं समाकृष्य विह्वलं वरवारणात् ॥२६२॥ गले तदंशुकेनैव प्राध्वंकृत्यं सुविस्मितः । एष याति पुरःकृत्वा बलीवदं यथा वशम् ॥२६३॥ एवमुक्तः स तरूचे स्वस्था भवत मानवाः । देवाः शान्ति करिष्यन्ति किमत्र बहुचिन्तया ॥२६४॥ स्थिता "मूर्द्धस हाणां दशाङ्गनगराङ्गनाः । परं विस्मयमापन्ना जगुरेवं परस्परम् ॥२६५॥ सखि पश्यास्य वीरस्य चेष्टितं परमाद्भुतम् । येनकेन नरेन्द्रोऽयमानीतोऽशुकबन्धनम् ॥२६६।। अहो कान्तिरमध्येयं धुतिश्चातिशतान्विता । अहो शक्ति रियं कोऽयं भवेत् पुरुषसत्तमः ॥२६७॥ भूतोऽयं भविता वापि पुण्यवत्याः सुयोषितः । पतिः कस्याः प्रशस्तायाः समस्तजगतीश्वरः ॥२६८॥ सिंहोदरमहिष्योऽथ वृद्धबालसमन्विताः । रुदत्यः पादयोः पेतुर्लक्ष्मणस्यातिविलवाः ॥२६९।।
घोड़ा छोड़ दो, हाथीसे नीचे उतर जाओ, गदा गड्ढे में गिरा दो, ऊँचा शब्द मत करो, शस्त्रोंका समूह देखकर यह अतिशय भयंकर पुरुष वेगसे कहीं हमारे ऊपर न आ पड़े; इस स्थानसे हट जाओ, अरे भट ! रास्ता दे, हाथीको यहाँसे दूर हटा, चुपचाप क्यों खड़ा है ? अरे दुष्ट सारथि ! देख, यह आया, यह आया, रथ छोड़, घोड़े जल्दी बढ़ा, मारे गये इसमें संशय नहीं, इत्यादि वार्तालाप करते हुए, संकट में पड़े कितने ही योद्धा, योद्धाओंका वेष छोड़कर नपुंसकोंके समान एक ओर स्थित हैं ।।२५३-२५८|| क्या युद्ध में यह कोई देव क्रीड़ा कर रहा है अथवा विद्याधर, वायु नामका कोई व्यक्ति संसारमें प्रसिद्ध है सो क्या यह वही है ? यह अत्यन्त तीक्ष्ण और बिजलीके समान चंचल है ।।२५९-२६०॥ सेनाको इस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट करके अब यह आगे क्या करेगा? हे नाथ! इस प्रकार हमारा मन शंकाको प्राप्त हो रहा है ।।२६१॥ देखो, रोमांचकारी युद्धमें उछलकर भयभीत सिंहोदरको हाथीसे खींचकर उसीके वस्त्रसे गले में बाँध लिया है और यह बैलकी तरह वश कर उसे आगे कर आश्चर्यसे चकित होता हुआ आ रहा है ।।२६२-२६३।। इस प्रकार सामन्तोंके कहनेपर वज्रकर्णने कहा कि हे मानवो! स्वस्थ होओ, देव शान्ति करेंगे, इस विषयमें बहुत चिन्ता करनेसे क्या लाभ है ? ॥२६४|| महलोंके शिखरोंपर बैठी दशांगनगरकी स्त्रियाँ परम आश्चर्यको प्राप्त हो परस्पर इस प्रकार कह रही थीं ॥२६५।। कि हे साथी ! इस वीरकी परम अद्भुत चेष्टा देखो जिसने अकेले ही इस राजाको वस्त्रसे बांध लिया ॥२६६।। धन्य इसकी कान्ति, धन्य इसका अतिशय पूर्ण तेज, और धन्य इसकी शक्ति । अहो! यह उत्तम पुरुष कौन होगा ? ॥२६७।। यह किस भाग्यशालिनी गुणवती स्त्रीका पति है ? अथवा आगे होगा? यह समस्त पृथिवीका स्वामी है ।।२६८।।।
अथानन्तर वृद्ध और बालकोंसे सहित सिंहोदरकी रानियाँ भयसे अत्यन्त विह्वल हो रोती १. मा पतदतिदारुणः म. । २. अपसा म.। ३. योधवेषम् । ४. नपुंसकवत् स्थिताः । ५. भवेश्चन्द्रो (?) म.। ६. त्वयेद- म.। ७. निरीक्षस्व+एनम् । ८. बद्ध्वा । ९. परः कृत्वा ज., ख.। १०. वजकर्णः । ११. हाणां प्रासादानां मूर्द्धसु पृष्ठेषु ।
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