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पद्मपुराणे उचुश्च देव मुञ्चैनं मर्तृभिक्षां प्रयच्छ नः । अद्य प्रभृतिभृत्योऽयं तवाज्ञाकरणोद्यतः ॥२७०॥ सोऽवोवत् पश्यतोदारं दुमखण्डमिमं पुरः । अत्र नीत्वा दुराचारमेतमुरलम्बयाम्यहम् ॥२७१।। करुणं बहु कुर्वन्त्यः पुनः साञ्जलयोऽवदन् । रुष्टोऽसि यदि देवास्मान् जहि निर्धार्यतामयम् ।।२७२।। प्रसादं कुरु मा दुःखं दर्शय प्रियसंभवम् । ननु योषित्सु कारुण्यं कुर्वन्ति पुषोत्तमाः १२७३।। पुरो मोक्ष्यामि सेवध्वं स्वस्थतामित्यसौ वदन् । ययौ चैत्यालयं यत्र ससीतो राघवः थितः ॥२७४।। अवोचल्लक्ष्मणः पनं सोऽयं वज्रश्रतेररिः। आनीतोऽस्याधुना देव कृत्यं वदतु यन्मया ।।२७५।। ततः सिंहोदरो मूर्ना करकुड़मलयोगिना । पपात वेपमानाङ्गः पास्य क्रमपभयोः ।।२७६।। जगाद चन देव त्वां वेद्मिकोऽसीति कान्तिमान् । परेण तेजसा युक्तो महीध्रपतिसन्निभः ॥२७॥ मानवो भव देवो वा गम्भीरपुरुषोत्तम । अत्र किं बहुभिः प्रोक्तरहमाज्ञाकरस्तथ ॥२७८।। गृह्णातु रुचितस्तुभ्यं राज्य मिन्द्रायुधश्रुति: । अहं तु पादशुश्रूषां करोमि सततं तव ।।२४९॥ धभिक्षां प्रयच्छेति योषितोऽप्यस्य पादयोः । रुदत्यः प्रणिपत्योचुः कुर्वन्त्यः करुणं बहु ॥२८॥ देवि स्त्रैणात्वमस्माकं कारुण्यं कुरु शोभने । इत्युदित्वा च सीतायाः पतितास्ताः क्रमाब्जयोः ॥२८॥ ततः सिंहोदरं पद्मो जगाद विनताननम् । कुर्वन् वापीषु हंसानां मेघनादोद्भवं भयम् ॥२८२।। शहायुधश्रतियत्ते ब्रवीति कुरु तत्तधोः । एवं ते जीवितं मन्ये प्रकारोऽन्यो न विद्यते ॥२८३।। आहूतोऽथ हितैः पुम्मिः कृतदृष्ट्यादिवर्धनः । वज्रर्णः परीवारसहितश्चैत्यमागमत् ।।२८४॥
स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य मूर्धपाणिजिनालयम् । स्तुत्वा ननाम चन्द्रामं भक्तिहृष्टस्तनूरुहः ॥२८५।। हई लक्ष्मणके चरणोंमें आ पड़ी ।।२६९।। वे बोली कि हे देव ! इसे छोड़ो, हमारे लिए पतिकी भिक्षा देओ, आजसे यह आपका आज्ञाकारी भृत्य है ।।२७०।। लक्ष्मणने कहा कि देखो यह सामने ऊंचा वृक्षखण्ड है वहाँ ले जाकर इस दुराचारीको उसपर लटकाऊँगा ॥२७१।। तदनन्तर बहुत करुण रुदन करती तथा बार-बार हाथ जोड़ती हुई बोली कि हे देव ! यदि रुष्ट हो तो हम लोगोंको मारो और इसे छोड़ दो ॥२७२।। प्रसन्नता करो, हग लोगोंको पतिका दुःख न दिखाओ। उत्तम पुरुष स्त्रियोंपर दया करते ही हैं ।।२७३।। तब लक्ष्मणने कहा कि अच्छा आगे चलकर छोड़ देंगे आप लोग स्वस्थताको प्राप्त होओ। इस प्रकार कहता हुआ लक्ष्मण उस चैत्यालयमें गया जहाँ कि सीता सहित राम ठहरे हुए थे ॥२७४।। वहाँ जाकर लक्ष्मणने रामसे कहा कि यह वज्रकर्णका शत्रु है इसे मैं ले आया हूँ। अब हे देव ! जो करना हो सो आज्ञा करो ॥२७५|| तब जिसका शरीर काँप रहा था ऐसा सिंहोदर हाथ जोड़ मस्तकसे लगा रामके चरणकमलोंमें गिरा ॥२७६।। और बोला कि हे देव ! आप कौन हैं ? यह मैं नहीं जानता। आप कान्तिमान् हैं, उत्कृष्ट तेजसे युक्त हैं और सुमेरुके समान स्थिर हैं ।।२७७॥ हे गम्भीर पुरुषोत्तम ! आप मनुष्य रहो चाहे देव ! इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या? मैं आपका आज्ञाकारी सेवक हूँ ।।२७८।। वज्रकर्ण आपको रुचता है सो वह यह राज्य ग्रहण करे मैं तो सदा आपके चरणोंकी शुश्रूषा ही करता रहूँगा ॥२७९।। सिंहोदरकी स्त्रियाँ भी अत्यन्त करुण विलाप करती हुई, रामके चरणोंमें प्रणाम कर बोलीं कि हमारे लिए पतिकी भिक्षा दीजिए ॥२८०॥ 'हे देवि ! तुम तो स्यो हो अतः हे शोभने ! हमपर दया करो' इस प्रकार कहकर वे सीताके चरणकमलोंमें भी पड़ी ।।२८१॥ तदनन्तर वापिकाओंमें स्थित हंसोंको मेघध्वनिसे होनेवाला भय उत्पन्न करते हुए रामने नीचा मुख कर बैठे हुए सिंहोदरसे कहा ।।२८२॥ कि हे सुधी! तूझे वज्र कर्ण जो कहे सो कर ! इसी तरह तेरा जीवन रह सकता है और दूसरा उपाय नहीं है ।।२८३।। तदनन्तर जिसकी भाग्य-वृद्धि हो रही थी ऐसा वज्रकर्ण हितकारी पुरुषोंके द्वारा बुलाया गया जो परिवार सहित उस चैत्यालयमें आया ।।२८४॥ उसने हाथ १. संगमं म.। २. वज्रकर्णः। ३. पतिभिक्षां। ४. कृतदृष्टाभिवर्धन: म. ।
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