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पद्मपुराणे ततोऽनेकपमारुह्य 'प्रावृषेण्यघनाकृतिम् । स्वयं सिंहोदरो रोर्बु लक्ष्मीनिलयमुद्यतः॥२४१॥ तास्मन् रणशिरोयाते किीचळ्यमुपागताः । दूरगाः पुनराजग्मुः सामन्ता लक्ष्मणं प्रति ।।२४२॥ घनानामिव सङ्घास्ते बब्रस्तं शशिनं यथा । वातूल इव तानेष तूलराशीनिवाकिरत् ॥२४३।। उदारमटकामिन्यो गण्डविन्यस्तपाणयः । जगुराकुलतामाजः प्रविलोलविलोचनाः ॥२४४॥ पश्यतेनं महामीमं सख्यः पुरुषमेककम् । वेष्टितं बहुभिः करैरसांप्रतमिदं परम् ॥२४॥ अन्यास्तत्रोचिरे कोऽपि केनायं परिभूयते । पश्यतानेन विक्रान्ता बहवो विह्वलीकृताः ॥२४६।। आस्तृणानमथो दृष्ट्वा लक्ष्मणोऽभिमुखं बलम् । विहस्य वारणस्तम्भ महान्तमुदमूलयत् ॥२४७।। ततः सरभसस्तत्र सान्द्रहुकारमीषणः । जजम्भे लक्ष्मणः कक्षे यथोच्चराशुशुक्षणिः ॥२४८॥ विस्मितो गोपुराग्रस्थो दशाङ्गनगराधिपः । पार्श्ववर्तिभिरित्यूचे सामन्तैर्विकचेक्षणैः ॥२४९।। कोऽप्येष पुरुषो नाथ पश्य सेहोदरं बलम् । भग्नध्वजरथच्छत्रं करोति परमद्युतिः ॥२५०।। एष खड्गधनुच्छायमध्यवर्ती सुविह्वलः । आवर्त इव निक्षिप्तो भ्राम्यतीमाहितोदरः ॥२५१।। इतश्वेतश्च विस्तीर्णमेतत्सैन्यं पलायते । एतस्मास्त्रासमागत्य सिंहान् मृगकुलं यथा ॥२५२।। वदन्त्यन्योन्यमत्रैते सामन्ता दूरवर्तिनः । अवतारय सन्नाहं मण्डलायो विमुच्यताम् ॥२५३॥
लक्ष्मण ऐसी चेष्टा करने लगा जैसी कि शृगालोंके साथ सिंह करता है ॥२४०॥ तदनन्तर वर्षा ऋतुके मेघके समान आकारको धारण करनेवाले हाथीपर सवार होकर सिंहोदर स्वयं लक्ष्मणको रोकनेके लिए उद्यत हुआ ।।२४१॥ जो सामन्त पहले दूर भाग गये थे वे सिंहोदरके रणाग्रमें आते ही कुछ-कुछ धैर्य धारण कर फिरसे वापस आ गये ।।२४२॥ जिस प्रकार मेघोंके झुण्ड चन्द्रमाको घेरते हैं उसी प्रकार उन सामन्तोंने लक्ष्मणको घेरा परन्तु जिस प्रकार तीव्र वायु रुईके ढेरको उड़ा देती है उसी प्रकार उसने उन सामन्तोंको उड़ा दिया-दूर भगा दिया ॥२४३।। जिन्होंने गालोंपर हाथ लगा रखे थे, जो अत्यन्त आकुलताको प्राप्त थीं, तथा जिनके नेत्र भयसे चंचल हो रहे थे ऐसी उत्तम योद्धाओंकी स्त्रियाँ परस्परमें कह रही थीं कि हे सखियो! इस महाभयंकर पुरुषको देखो। इस एकको बहुतसे क्रूर सामन्तोंने घेर रखा है यह अत्यन्त अनुचित बात है ॥२४४-२४५॥ उन्हींमें कुछ स्त्रियां इस प्रकार कह रहीं थीं कि यद्यपि यह अकेला है फिर भी इसे कौन परिभूत कर सकता है ? देखो, इसने अनेक योद्धाओंको चपेटकर विह्वल कर दिया है ॥२४६।।
अथानन्तर सामने सेनाको इकट्री होती देख लक्ष्मणने हंसकर हाथी बाँधनेका एक बड़ा खम्भा उखाड़ा ॥२४७।। और जिस प्रकार वनमें जोरदार अग्नि वृद्धिंगत होती है उसी प्रकार सघन हुंकारोंसे भयंकरताको प्राप्त करता हुआ लक्ष्मण उस सेनापर वेगसे टूट पड़ा ।।२४८|| दशांगपुरका राजा वज्रकर्ण गोपुरके अग्रभाग पर बैठा-बैठा इस दृश्यको देख आश्चर्यसे चकित हो गया। जिनके नेत्र हर्षसे विकसित हो रहे थे ऐसे समीपवर्ती सामन्तोंने उससे कहा कि हे नाथ! देखो. परम तेजको धारण करनेवाला यह कोई पुरुष सिहोदरकी सेनाको नष्ट कर रहा है। उसने उसकी सेनाके ध्वज, रथ तथा छत्र आदि सभी तोड़ डाले हैं ॥२४९-२५०॥ तलवारों और धनुषोंकी छायाके बीच खड़ा हुआ यह सिंहोदर, अत्यन्त विह्वल हो भंवर में पड़े हुए के समान इधर-उधर घूम रहा है ।।२५१॥ जिस प्रकार सिंहसे भयभीत होकर मृग समूह इधर-उधर भागता फिरता है उसी प्रकार सिंहोदरकी सेना इससे भयभीत होकर इधर-उधर भागती फिरती है ॥२५२॥ ये दूर खड़े हुए सामन्त परस्पर कह रहे हैं कि कवच उतार दो, तलवार छोड़ दो, धनुष फेंक दो, १. प्रावृषेण म.। २. जाते म.। ३. अग्निः । ४. सिंहोदरः ।
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