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त्रयस्त्रशत्तमं पर्व
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ततश्च विनयी गत्वा स्तुत्वा तौ भ्रातरौ क्रमात् । अपृच्छद् वपुरारोग्यं सीतां च विधिकोविदः ॥ २८६॥ भद्र ते कुशलेनाद्य कुशलं नः समन्ततः । इति तं राघवोऽवोचन्नितान्तं मधुरध्वनिः ॥ २८७ ॥ सङ्कथेयं तयोर्यावद् वर्तते शुमलीलयोः । चारुवेषोऽथ सैन्येन विद्युदङ्गः समागतः ॥२८८॥ स तयोः प्रणतिं कृत्वा स्तुत्वा च क्रमपण्डितः । समीपे वज्रकर्णस्य संनिविष्टः प्रतापवान् ॥२८९॥ विद्युदङ्गः सुधी सोऽयं वज्रकर्णसुहृत्वरः । इति शब्दः समुत्तस्थौ तदा सदसि मांसलः ॥२९०॥ पुनश्च राघवोऽवोचत् कृत्वा स्मितसितं मुखम् । वज्रकर्ण ! समीचीना तव दृष्टिरियं परा ॥ २९१ ॥ कुमतैस्तव धीरेषा मनागपि न कम्पिता । उत्पातवातसंघातैः मन्दरस्येव चूलिका ॥ २९२ ॥ ममापि सहसा दृष्ट्वा न ते मूर्धायमानतः । अहो परमिदं चारु तव शान्तं विचेष्टितम् ॥२९३॥ अथवा शुद्धतत्वस्य किमु पुंसोऽस्ति दुस्तरम् । धर्मानुरागचित्तस्य सम्यग्दृष्टेर्विशेषतः ॥ २९४॥ प्रणम्य त्रिजगद्वन्धं जिनेन्द्रं परमं शिवम् । तुङ्गेन शिरसा तेन कथमन्यः प्रणम्यते ॥ २९५॥ मकरन्दरसास्वादलेब्धवर्णो मधुव्रतः । रासभस्य पदं पुच्छे प्रमत्तोऽपि करोति किम् ॥ २९६ ॥ बुद्धिमानसि धन्योऽसि दुधास्यासन्नभव्यताम् । चन्द्रादपि सिता कीर्तिस्तव भ्राम्यति विष्टपे ॥ २९७ ॥ विद्युदङ्गोऽप्ययं मित्रं परं ते विदितं मया । मन्योऽयमपि यः सेवां तव कर्तुं समुद्यतः ॥ २९८ ॥ सद्भूतगुणकीर्तेरथ लज्जामुपागतः । किंचिन्नताननोऽवोचच्छुनाशीरायुर्धश्रवाः ॥ २९९ ॥ अन्नावसीदतो देव प्राप्तस्य व्यसनं महत् । सञ्जातोऽसि महाभाग त्वं मे परमबान्धवः ॥३००॥
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जोड़ तक लगा जिनालयकी तीन प्रदक्षिणाएँ दीं फिर भक्तिसे रोमांचित हो चन्द्रप्रभ भगवान्नमस्कार किया || २८५ ॥ तत्पश्चात् विधि-विधान के जानकार वज्रकर्णने विनयपूर्वक जाकर राम-लक्ष्मण दोनों भाइयोंकी क्रमसे स्तुति की और सीतासे शरीर-सम्बन्धी आरोग्य पूछा ॥ २८६॥ तदनन्तर रामने अत्यन्त मधुर ध्वनिमें उससे कहा कि हे भद्र ! आज तो तेरी कुशलसे ही हम सबको कुशल है ॥२८७॥। इस प्रकार शुभलीलाके धारक राम और वज्रकर्णके बीच जबतक यह वार्तालाप चलता है तबतक सुन्दर वेषका धारक विद्युदंग सेनाके साथ वहाँ आ पहुँचा ||२८८ || क्रमके जानने में पण्डित प्रतापी विद्युदंग राम-लक्ष्मणको प्रणाम कर वज्रकणके पास आ बैठा ॥ २८९ ॥ उसी समय सभा में यह जोरदार शब्द गूँजने लगा कि यह बुद्धिमान् विद्युदंग वज्रकणंका परम मित्र है ||२९०|| तदनन्तर रामने मन्द हास्यसे मुखको धवल कर वज्रकर्णंसे कहा कि हे वज्रकणं ! तेरी यह दृष्टि अत्यन्त श्रेष्ठ है || २२१|| जिस प्रकार मेरुपर्वतकी चूलिका, प्रलयकालको वायुके आघात से कम्पित नहीं होती, उसी प्रकार तेरी यह बुद्धि मिथ्या मतोंसे रंचमात्र भी कम्पित नहीं हुई ॥ २९२ ॥ मुझे देखकर भी तेरा यह मस्तक नम्रीभूत नहीं हुआ सो तेरी यह चेष्टा अत्यन्त मनोहर तथा शान्त है || २९३ ॥ अथवा शुद्ध तत्त्वके जानकार पुरुषको क्या कठिन है ? खासकर धर्मानुरागी सम्यग्दृष्टिके मनुष्यको ||२९४ || जिस उन्नत शिरसे तीन लोकके द्वारा वन्दनीय परम कल्याणस्वरूप जिनेन्द्रभगवान्को नमस्कार किया जाता है उसी शिरसे दूसरे लोगों को कैसे प्रणाम किया जाये ? ॥ २९५॥ मकरन्द रसके आस्वादनमें निपुण भौंरा उन्मत्त होनेपर भी क्या गधेकी पूँछपर अपना स्थान
माता है ? || २९६ || तुम बुद्धिमान् हो, धन्य हो, निकट भव्यपना धारण कर रहे हो और चन्द्रमासे भी अधिक धवल तुम्हारी कीर्ति संसारमें भ्रमण कर रही है ||२९७|| मुझे मालूम है कि यह विद्युदंग भी तुम्हारा मित्र है । सो यह भी भव्य है जो कि तुम्हारी सेवा करनेके लिए उद्यत रहता है || २९८||
अथानन्तर यथार्थं गुणोंके कथनसे जो लज्जाको प्राप्त था तथा जिसका मुख कुछ नीचेकी ओर झुक रहा था ऐसा वज्रकणं बोला कि हे देव ! यद्यपि आपको यहाँ रहते बहुत कष्ट हुआ है १. सुमेरो । २. निपुणः । ३. भ्रमरः । ४. वज्रकर्णः । ५. में त्वं म. ।
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