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पद्मपुराणे पापकर्मपरिक्लिष्टैगजैरिव निरङ्कशैः । तत्र दुःखसहस्राणि प्राप्यन्ते पुरुषाधमः ॥९९॥ भवन्तमेव पृच्छामि त्वादृशै विषयातुरैः । क्रियते पापसंसक्तैः कीदृशं हितमात्मनः ॥१०॥ इन्द्रियप्रभवं सौख्यं किंपाम्सदृशं कथम् । अहन्यहन्युपादाय मन्यसे हितमात्मनः ॥१०॥ हितं करोत्यसो स्वस्य भूतानां यो दवापरः । दीक्षितो गृहयातो वा बुधो निर्मलमानसः ॥१०२॥ कृतं तैरात्मनः श्रेयो ये महावततत्पराः । अथवाणुव्रतैर्युक्ताः शेषा दुःखस्य भाजनम् ॥१०॥ परलोकादि हैतस्त्वं कृत्वा सुकृतमुत्तमम् । इहलोकेऽधुना पा अमी निरागसः क्षद्वा बराकाः क्षितिशायिनः । अनाथा लोलनयना नित्योद्विग्ना वने मृगाः ॥१०५॥ आरण्यतृणपानीयकृतविग्रहधारिणः । अनेकदुःखसंछन्नाः पूर्वदुष्कृतमोगिनः ॥१०६॥ रात्रावपि न विन्दन्ति निद्रां चकितचेतसः । साध्वाचारैर्न युक्तं ते कुलजैहि सितुं नरैः ॥१०७॥ अतो ब्रवीमि राजंस्त्वां यदीच्छस्यात्मनो हितम् । त्रिधा हिंसां परित्यज्य कुर्वहिंसा प्रयत्नतः ॥१०८॥ उर्द्धरित्युपदेशोच्चैर्यदासौ प्रतिबोधितः । तदा प्रणतिमायातः फलैरिव महीरुहः ॥१०९॥ उत्तीर्य प्रसृतः सेप्तेर्जानुपीडितभूतलः । प्रणनामोत्तमाङ्गेन सुसाधं रचिताअलिः ॥११॥ निरीक्ष्य सौम्यया दृष्टया तमेवं चाभ्यनन्दयत् । इलाध्योऽयं वीक्षितः सिद्धो मुनिस्त्यक्तपरिग्रहः ॥१११॥ शकुन्तयो मृगाश्चामी धन्या वननिवासिनः । शिलातलनिषण्णं ये पश्यन्तीमं समाहितम् ॥११२॥
अतिधन्योऽहमप्यद्य मुक्तः पापेन कर्मणा। यदेतं त्रिजगद्वन्द्य प्राप्तः साधुसमागमम् ॥११३॥ आदि विलोंसे युक्त हैं, महाअन्धकारसे भरी हैं, महाभय उत्पन्न करनेवाली हैं, असिपत्र वनसे आच्छादित हैं और अत्यन्त खारे जलसे भरी 'नदियोंसे युक्त हैं ॥९८॥ जो पाप कार्योंसे संक्लेशको प्राप्त होते रहते हैं तथा जो हाथियोंके समान निरंकुश अर्थात् स्वच्छन्द रहते हैं ऐसे नीच पुरुष उन पृथिवियोंमें हजारों दुःख प्राप्त करते हैं ॥९९।। मैं आपसे ही पूछता हूँ कि तुम्हारे समान विषयोंसे पीड़ित तथा पापोंमें लीन मनुष्य आत्माका कैसा हित करते हैं ? ॥१००॥ किंपाक फलके समान जो इन्द्रियजन्य सुख है उसे प्रतिदिन प्राप्त कर तू आत्माका हित मान रहा है ॥१०१।। अरे! आत्माका हित तो वह करता है जो प्राणियोंपर दया करने में तत्पर रहता हो, विवेकी हो, निर्मल अभिप्रायका धारक हो, मुनि हो अथवा गृहस्थ हो ॥१०२॥ आत्माका कल्याण तो उन्होंने किया है जो महाव्रत धारण करने में तत्पर रहते हैं अथवा जो अणुव्रतोंसे युक्त होते हैं, शेष मनुष्य तो दुःखके ही पात्र हैं ॥१०३।। तू परलोकमें उत्तम पुण्य कर यहाँ आया है और अब इस लोकमें पाप कर दुर्गतिको जायेगा ॥१०४॥ ये वनके निरपराधी, क्षुद्र, दयनीय मृग; जो अनाथ हैं, चंचल नेत्रोंके धारक हैं, निरन्तर उद्विग्न रहते हैं, जंगलके तृण और पानीसे बने शरीरको धारण करते हैं, अनेक दुःखोंसे व्याप्त हैं, पूर्व भवमें किये पापको भोग रहे हैं और भयभीत होनेके कारण जो रात्रिमें भी निद्राको नहीं प्राप्त होते हैं; उत्तम आचारके धारक कुलीन मनुष्योंके द्वारा मारे जानेके योग्य नहीं हैं ॥१०५-१०७|| इसलिए हे राजन् ! मैं तुझसे कहता हूँ कि यदि तू अपना हित चाहता है तो मन-वचन-कायसे हिंसा छोड़कर प्रयत्नपूर्वक अहिंसाका पालन कर ॥१०८|| इस प्रकार हितकारी उपदेशात्मक वचनोंसे जब राजा सम्बोधा गया तब वह फलोंसे वृक्षके समान नम्रताको प्राप्त हो गया ॥१०९॥ वह घोड़ेसे उतरकर पैदल चलने लगा तथा पृथिवीपर घुटने टेक, हाथ जोड़, शिर झुकाकर उसने उन उत्तम मुनिराजको नमस्कार किया ॥११०॥ सौम्य दृष्टिसे दर्शन कर उनका इस प्रकार अभिनन्दन किया कि अहो ! आज मैंने परिग्रह रहित प्रशंसनीय तपस्वी मुनिराजके दर्शन किये ॥१११॥ वनमें निवास करनेवाले ये पक्षी तथा हरिण धन्य हैं जो शिलातलपर विराजमान इन ध्यानस्थ मुनिका दर्शन करते हैं ॥११२।। आज जो
१. परलोकादिहेतुं स्वं । २. अश्वात् ।
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