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पद्मपुराणे
वहन् परममावेन वज्रकर्णः सदा गुरुम् । बभूव वीतसंदेहश्चिन्तामेवमुपागतः ॥१२८॥ भृत्यो भूत्वा विपुण्योऽहं सिंहोदरमहीभृतः । अकृत्वा विनयं भोगान् कथं सेवे 'निकारिणः ॥१२९॥ इति चिन्तयतस्तस्य प्रसन्नेनान्तरात्मना । विधिना प्रेर्यमाणस्य मतिरेवं समुद्गता ॥१३०॥ कारयाम्यूमिकां स्वार्णी सुवतस्वामिविम्बिनीम् । दधामि दक्षिणाङ्गुष्ठे तां नमस्कारमागिनीम् ॥१३१॥ घटिता सा ततस्तेन पाणिभासुरपीठिका । पिनद्धा चातिहृष्टेन नयप्रवणचेतसा ॥१३२॥ स्थित्वा सिंहोदरस्याग्रे कृत्वाङ्गष्ठं पुरः कृती। प्रतिमां तां महाभागो नमस्यति स संततम् ॥१३३॥ रन्ध्रविन्यस्तचित्तेन वैरिणा कथितेऽन्यदा । वृत्तान्तेऽत्र परं कोपं पापः सिंहोदरोऽगमत् ॥१३॥ माययाह्वययच्चैनं दशाङ्गनगरस्थितम् । वधार्थमुद्यतो मानी मत्तो विक्रमसंपदा ॥१३५।। बृहदगतितनूजस्तु प्रगुणेनैव चेतसा । प्रवृत्तोऽश्वशतेनास्य विनीतो गन्तुमन्तिकम् ॥१३६॥ दण्डपाणिरुवाचैकः पीवरोदारविग्रहः । कुङ्कमस्थासकोदासी तमागत्यैवमुक्तवान् ॥१३७॥ यदि भोगशरीराभ्यां सुनिविण्णोऽसि पार्थिव । तत उजयिनी गच्छ नोचेन्नो गन्तुमर्हसि ॥१३८॥ क्रुद्धः सिंहोदरो यत्ते वधं कर्तुं समुद्यतः । अनमस्कारदोषेण कुरु राजन्नभीप्सितम् ॥१३९॥ एवं स गदितो दध्यो केनाप्येष दुरात्मना । मात्सर्यहतचित्तेन भेदः कर्तममीप्सितः ॥११॥ तं विसर्पन्मदामोदं किंचित्खेदमुपागतम् । सोऽपृच्छत्कोऽसि किंनामा कुतो वासि समागतः ॥१४॥
दिन अतिथिका सत्कार कर उसने पारणा की और फिर मुनिराजके चरणोंको प्रणाम कर अपने नगरमें प्रवेश किया ॥१२७॥
अथानन्तर जो परम भक्ति-भावसे गुरुको सदा हदयमें धारण करता था तथा जिसे किसी प्रकारका सन्देह नहीं था ऐसा राजा वज्रकर्ण इस प्रकार चिन्ता करने लगा ॥१२८॥ कि मैं पुण्यहीन, राजा सिहोदरका सेवक होकर यदि उसकी विनय नहीं करता हूँ तो वह दमन करेगादण्ड देवेगा तब इस दशामें भोगोंका सेवन किस प्रकार करूँगा ।।१२९|| इस प्रकार चिन्ता करतेकरते भाग्यसे प्रेरित राजा वज्रकर्णको अपनी स्वच्छ अन्तरात्मासे यह बुद्धि उत्पन्न हुई ॥१३०॥ कि मैं मुनिसुव्रत भगवान्की प्रतिमासे युक्त एक स्वर्णकी अंगूठी बनवाकर दाहिने हाथके अंगूठामें धारण करूँ तो मेरा नमस्कार उसीको कहलावेगा ॥१३१।। इस प्रकार विचारकर उस नीतिनिपुण राजाने, जिसकी पीठिका हाथमें सुशोभित थी ऐसी अंगूठी बनवायी और अत्यन्त हर्षित होकर धारण की ॥१३२॥ अब वह बुद्धिमान्, राजा सिंहोदरके आगे खड़ा होकर तथा अंगूठेको आगे कर सदा उस प्रतिमाको नमस्कार करने लगा ॥१३३॥ किसी एक दिन छिद्रान्वेषी वैरीने यह समाचार सिंहोदरसे कह दिया जिससे वह पापी परम कोपको प्राप्त हुआ ॥१३४॥ तदनन्तर पराक्रमरूपी सम्पदासे मत्त मानी सिंहोदर उसका वध करनेके लिए उद्यत हो गया और उसने दशांगपुरमें रहनेवाले वज्रकर्णको छलसे अपने यहाँ बुलाया ।।१३५।। बृहद्गतिका पुत्र वज्रकर्ण सरल चित्त था इसलिए वह सौ घुड़सवार साथ ले उसके पास जानेके लिए तैयार हो गया। उसी समय जिसके हाथ में लाठी थी, जिसका मोटा तथा ऊँचा शरीर था और जो केशरके तिलकसे सुशोभित हो रहा था ऐसा एक पुरुष आकर उससे इस प्रकार बोला ||१३६-१३७॥ कि हे राजन् ! यदि तुम भोग और शरीरसे उदासीन हो चुके हो तो तुम उज्जयिनी जाओ अन्यथा जाना योग्य नहीं है ॥१३८|| हे राजन् ! तुम सिहोदरको नमस्कार नहीं करते हो इस अपराधसे वह क्रुद्ध होकर तुम्हारा वध करने के लिए तैयार हुआ है। अतः जैसी आपकी इच्छा हो वैसा करो ॥१३९॥ उस पुरुषके ऐसा कहनेपर वज्रकणंने विचार किया कि किसी ईर्ष्यालु दुष्ट मनुष्यने भेद करना चाहा है अर्थात् मुझमें और सिंहोदरमें फूट डालोका उद्योग किया है। इस प्रकार विचारकर उसने १. दमनकर्तुः।
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