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त्रयस्त्रशत्तमं पर्व
बन्धुस्नेहमयं बन्धं छित्वा ज्ञाननखैरयम् । केसरीव विनिष्क्रान्तः प्रभुः संसारपञ्जरात् ॥ ११४॥ अनेन साधुना पश्य वशीकृतमनोरिपुम् । नाग्न्योपकारयोगेन शीलस्थानं प्रपात्यते ॥ ११५॥ अहं पुनरतृप्तात्मा तावदस्मिन् गृहाश्रमे । अणुव्रतविधौ रम्ये करोमि परमां धृतिम् ॥ ११६॥ इति संचिन्त्य जग्राह तस्मात्साधोगृहस्थितिम् । चकारावग्रहं चैवं भावप्लावितमानसः ॥११७॥ देवदेवं जिनं मुक्त्वा परमात्मानमच्युतम् । निर्ग्रन्थांश्च महाभागान्न नमाम्यंपरानिति ॥ ११८ ॥ प्रीतिवर्धनसंज्ञस्य मुनेस्तस्य महादरः । चकार महतीं पूजामुपवासं समाहितः ॥ ११९ ॥ उपासीनस्य चाख्यातं परमं साधुना हितम् । यत्समाराध्य मुच्यन्ते संसाराद् मव्यदेहिनः ॥ १२० ॥ सागारं निरगारं च द्विधा चारित्रमुत्तमम् । सावलम्बं गृहस्थानां निरपेक्षं खवाससाम् ॥ १२१ ॥ दर्शनस्य विशुद्धिश्च तपोज्ञानसमन्विता । प्रथमाद्यनुयोगाश्व प्रसिद्धा जिनशासने ॥ १२२ ॥ सुदुष्करं विगेहानां चारित्रमवधार्य सः । पुनः पुनर्संतिं चक्रेऽणुव्रतेष्वेव पार्थिवः ॥ १२३ ॥ निधानतेनेव प्राप्तं बिभ्रदनुत्तमम् । धर्म्यध्यानमसौ बुद्ध्वा परमां धृतिमागतः ॥ १२४॥ नितान्त क्रूरकर्मायमुपशान्तो महीपतिः । इति प्रमोदमायातः संयतोऽपि विशेषतः ॥ १२५ ॥ गते साधौ तपोयोग्यं स्थानं सुकृतसत्रिणि । विभूत्या परया युक्तः सुकाभः सुखतर्पितः ॥ १२६ ॥ विहितातिथिसंमानोऽपरेद्युः कृतपारणः । प्रणम्य चरणौ साधोः स्वस्थानमविशन्नृपः ॥ १२७ ॥
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मैं त्रिभुवनके द्वारा वन्दनीय इस साधु समागमको प्राप्त हुआ हूँ सो धन्य हो गया हूँ, पाप कर्मसे छूट गया हूँ ||१३|| ये प्रभु सिंहके समान ज्ञानरूपी नखोंके द्वारा बन्धुओंके स्नेहरूपी बन्धनको छोड़कर संसाररूपी पिंजड़े से बाहर निकले हैं ॥ ११४ ॥ देखो, इन साधुके द्वारा मनरूपी शत्रुको वश कर नग्नताके उपकारसे शील स्थानकी किस प्रकार रक्षा की जा रही है ? ||११५|| किन्तु मेरी आत्मा अभी तृप्त नहीं हुई है । अत: मैं इस गृहस्थाश्रममें रहकर रमणीय अणुव्रतके पालन में ही सन्तोष धारण करता हूँ | ११६ || इस प्रकार विचार कर उसने उन मुनिराजसे गृहस्थ धर्म अंगीकार किया और भावसे प्लावित मन होकर इस प्रकार प्रतिज्ञा की कि मैं देवाधिदेव तथा गुणोंसे अच्युत परमात्मा जिनेन्द्रदेव और उदार अभिप्रायके धारक निर्ग्रन्थ मुनियोंको छोड़कर अन्य किसी को नमस्कार नहीं करूंगा ||११७-११८।। इस प्रकार उसने बड़े आदरसे उन प्रीतिवर्धन मुनिराजकी बड़ी भारी पूजा की और स्थिरचित्त होकर उस दिनका उपवास किया ॥ ११९ ॥ समीपमें बैठे हुए राजा वज्रकणको मुनिराजने उस परम हितका उपदेश दिया कि जिसकी आराधना कर भव्य प्राणी संसारसे मुक्त हो जाते हैं ||१२० | उन्होंने कहा कि उत्तम चरित्रके दो भेद हैं- एक सागार और दूसरा अनगार। इनमें से पहला चारित्र बाह्य वस्तुओंके आलम्बनसे सहित है तथा गृहस्थोंके होता है और दूसरा चारित्र बाह्य वस्तुओंकी अपेक्षासे रहित है तथा आकाशरूपी वस्त्रके धारक मुनियोंके ही होता है ॥ १२१ ॥ उन्होंने यह भी बताया कि तप तथा ज्ञानके संयोगसे दर्शन में विशुद्धता उत्पन्न होती है । साथ ही साथ उन्होंने जिनशासन में प्रसिद्ध प्रथमानुयोग आदिका वर्णन भी किया || १२२ ॥ | यह सब सुननेके बाद भी राजाने निर्ग्रन्थ मुनियोंका चरित्र अत्यन्त कठिन समझकर अणुव्रत धारण करनेका ही बार-बार विचार किया || १२३|| यह जानकर राजा परम सन्तोषको प्राप्त हुआ कि मुझे उत्कृष्ट धर्म ध्यान क्या प्राप्त हुआ मानो किसी निर्धनको उत्तम खजाना ही मिल गया || १२४ || अत्यन्त क्रूर कार्य करनेवाला यह राजा शान्त हो गया है यह देख मुनिराज भी बहुत हर्षको प्राप्त हुए || १२५ ।। तदनन्तर पुण्यरूपी यज्ञके धारक मुनिराज तपके योग्य दूसरे स्थानपर चले गये और राजा परम विभूतिसे युक्त हो वहीं रहा आया । उसे उत्तम लाभकी प्राप्ति हुई थी इसलिए सुखसे सन्तृप्त था । १२६|| दूसरे
१. प्रतिज्ञां । २. समीपस्थितस्य । ३. दिगम्बराणाम् । ४. मुनीनाम् ।
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