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त्रयस्त्रिशत्तम पर्व
१११ कथं वा तव मन्त्रोऽयं विदितोऽत्यन्तदुर्गमः । एतद्भद्र समाचक्ष्व ज्ञातुमिच्छाम्यशेषतः ॥१४२॥ सोऽवोचत् कुन्दनगरे वणिग्धनपरायणः । समुद्रसङ्गमो नामा यमुना तस्य भासिनी ॥१४३॥ विधुज्ज्वालाकुले काले प्रसूता जनना च माम् । बन्धुभिविद्यदङ्गाख्या मयि तेन नियोजिता ॥१४॥ क्रमाच्च यौवनं बिभ्रदवन्तीनगरीमिमाम् । आगतोऽस्म्यर्थलाभाय युक्तो वाणिज्यविद्यया ॥१४५॥ वेश्यां कामलतां दृष्टा कामबाणेन ताडितः। न रात्रौ न दिवा यामि निवृतिं परमाकुलः ॥१४६॥ एकां रात्रि वसामीति तथा कृतसमागमः । प्रीत्या दृढतरं बद्धो यथा वागुरया मृगः ॥१४७॥ जनकेन ममासंख्यैर्यदन्दैरर्जितं धनम् । तन्मयास्य सुपुत्रेण षड्भिर्मासैविनाशितम् ॥१४८॥ पद्म द्विरेफवत् सक्तः कामतद्गतमानसः । साहसं कुरुते किं न मानवो योषितां कृते ॥१४९॥ अन्यदा सा पुरः सख्या निन्दन्ती कुण्डलं निजम् । श्रुता मयेति मारेण किं कर्णस्यामुना मम ॥१५०॥ धन्या सा श्रीधरा देवी महासौभाग्यभाविनी । यस्यास्तगाजते कर्णे मनोज्ञं रत्नकुण्डलम् ॥१५॥ चिन्तितं च मया तच्चेदपहृत्य सकुण्डलम् । आशां न पूरयाम्यस्यास्तदा किं जीवितेन मे ॥१५२॥ ततो जिहीषया तस्य दयितं प्रोह्य जीवितम् । गतोऽहं भवनं राज्ञो रजन्या तमसावृतः ॥१५३॥ पृच्छन्ती श्रीधरा तस्य मया सिंहोदरं श्रुता । निद्रा न लभसे कस्मान्नाथोद्विग्न इवाधुना ॥१५॥ सोऽवोचहेवि निद्रा मे कुतो व्याकुलचेतसः । न मारितो रिपुर्यावन्नमस्कारपराङ्मुखः ॥१५५॥
जिसे अत्यधिक हर्ष हो रहा था तथा जो किचित खेदको प्राप्त था ऐसे उस दतसे पूछा कि त कौन है ? कहाँसे आया है ? ॥१४०-१४१।। और इस दुर्गम मन्त्रका तुझे कैसे पता चला है ? हे भद्र ! यह कह । मैं सब जानना चाहता हूँ ॥१४२।। . वह बोला कि कुन्दनगरमें धनसंचय करनेमें तत्पर एक समुद्रसंगम नामक वैश्य रहता था। उसकी स्त्रीका नाम यमुना था। मैं उन्हींका पुत्र हूँ। चूंकि मेरी माताने मुझे उस समय जन्म दिया जो बिजलीकी ज्वालाओंसे व्याप्त रहता है इसलिए बन्धुजनोंने मेरा विद्युदंग नाम रखा ॥१४३-१४४॥ क्रमसे यौवनको धारण करता हुआ मैं व्यापारकी विद्यासे युक्त हो धनोपार्जन करनेके लिए इस उज्जयिनी नगरीमें आया था ॥१४५।। सो यहाँ कामलता नामक वेश्याको देखकर कामबाणसे ताड़ित हुआ जिससे व्याकुल होकर न दिनमें चैनको पाता हूँ और न रात्रि में ॥१४६॥ 'मैं एक रात उसके साथ समागम कर रह लूँ' इस प्रीतिने मुझे इस प्रकार अत्यन्त मजबूत बाँध रखा जिस प्रकार कि जाल किसी हरिणको बांध रखता है ॥१४७॥ मेरे पिताने अनेक वर्षों में जो धन संचित किया था मुझ सुपूतने उसे केवल छह माहमें नष्ट कर दिया ।।१४८|| जिस प्रकार भ्रमर कमलमें आसक्त रहता है उसी प्रकार मेरा मन कामसे दुःखी हो उस वेश्या में आसक्त रहता था सो ठीक ही है क्योंकि यह पुरुष स्त्रियोंके लिए कौन-सा साहस नहीं करता है ? ॥१४९।। एक दिन मैंने सुना कि वह वेश्या सखीके सामने अपने कुण्डलको निन्दा करती हुई कह रही है कि कानोंके भारस्वरूप इस कुण्डलसे मुझे क्या प्रयोजन है ? वह महासौभाग्यका उपभोग करनेवाली श्रीधरा रानी धन्य है जिसके कानमें वह रत्नमयी मनोहर कुण्डल शोभित होता है ।।१५०-१५१।। मैंने सुनकर विचार किया कि यदि मैं उस उत्तम कुण्डलको चुराकर इसकी आशा पूर्ण नहीं करता हूँ तो मेरा जीवन किस काम का ? ॥१५२।। तदनन्तर उस कुण्डलको अपहरण करनेकी इच्छासे मैं अपने प्रिय जीवनकी उपेक्षा कर रात्रिके समय अन्धकारसे आवृत होकर राजाके घर गया ।।१५३।। वहाँ मैंने रानी श्रीधराको सिंहोदरसे यह पूछती हुई सुना कि हे नाथ ! आज नींदको क्यों नहीं प्राप्त हो रहे हो तथा उद्विग्न-से क्यों मालूम होते हो ? ॥१५४॥ उसने कहा कि हे देवि ! जबतक मैं नमस्कारसे विमुख रहनेवाले शत्रु वज्रकर्णको नहीं मारता हूँ १. वर्षेः । २. भागिनी म.।
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