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त्रयस्त्रिशत्तम पर्व
११५ ततस्तुष्टोऽवदत् पद्मः पश्य लक्ष्मण भद्रताम् । वज्रकर्णस्य येनेदं कृतं परिचयाद् विना ॥१९९॥ जामाग्रेऽपि सुसंपन्नमीदृगन्नं न दीयते । पानकानामहो शैत्यं व्यञ्जनानां च मृष्टता ॥२०॥ अनेनामृतकल्पेन नान्नेन मार्गजः । नैदाघोऽपहृतः सद्यः श्रमोऽस्माकं समन्ततः ॥२०॥ चन्द्रबिम्बमिवाचूर्ण्य शालयोऽमी विनिर्मिताः । धवलत्वेन विभ्राणा मार्दवं मिन्नसिक्थकाः ॥२०२॥ दुग्ध्वेव दीधितीरिन्दोः कृतमेतच्च पानकम् । नितान्तमच्छतायुक्तं सौरमाकृष्टषट्पदम् ॥२०३॥ घृतक्षीरमिदं जातं कल्पधेनुस्तनादिव । रसानामीदृशी व्यक्तिय॑ञ्जनेषु सुदुस्तरा ॥२०४॥ अणुव्रतधरः साधुर्वर्णितः पथिकेन सः । अतिथीनां करोत्यन्यः संविभागं क ईदशम् ॥२०५॥ शुद्धात्मा श्रूयते सोऽयमनन्यप्रणतिः सुधीः । भवार्तिसथनं नाथ जिनेन्द्रं यो नमस्यति ॥२०६॥ ईदृक्शीलगुणोपेतो यद्येषोऽस्माकमग्रतः । तिष्ठत्यरातिना रुद्धस्ततो नो जीवितं वृथा ॥२०७॥ अपराधविमुक्तस्य साधुसेवार्पितात्मनः । समस्ताश्चास्य सामन्ता एकनाथाविरोधिनः ॥२०८॥ तोद्यमानमिमं नूनं सिंहोदरकुभूभृता । भरतोऽपि न शक्नोति रक्षितुं नृतनेशतः ॥२०९॥ तस्मादन्यपरित्राणरहितस्यास्य संमतेः । क्षिप्रं कुरु परित्राणं व्रज सिंहोदरं वद ॥२१०॥ इदं वाच्यमिदं वाच्यमिति किं शिक्ष्यते भवान् । उत्पन्नः प्रज्ञया साकं प्रभयेव महामणिः ॥२१॥ गुणोच्चारणसवीडः कृत्वा शिरसि शासनम् । यथाज्ञापयसीत्युक्त्वा प्रणम्य प्रेमदान्वितः ॥२१२॥
तदनन्तर रामने सन्तुष्ट होकर कहा कि हे लक्ष्मण ! वज्र कर्णकी भद्रता देखो जो इसने परिचयके बिना ही यह किया है ।।१९९।। ऐसा सुन्दर भोजन तो जमाईके लिए भी नहीं दिया जाता है । अहो ! पेय पदार्थों की शीतलता और व्यंजनोंकी मधुरता तो सर्वथा आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है ॥२००। इस अमृत तुल्य अन्नके खानेसे हमारा मार्गसे उत्पन्न हुआ गर्मीका. समस्त श्रम एक साथ नष्ट हो गया है ॥२०१॥ जो कोमलताको धारण कर रहे हैं, जिनका एक-एक सीत अलग-अलग है, और जो सफेदीके कारण ऐसे जान पड़ते हैं मानो चन्द्रमाके बिम्बको चूर्ण कर ही बनाये गये हैं ऐसे ये धानके चावल हैं ॥२०२।। जो अत्यन्त स्वच्छतासे युक्त है तथा जो अपनी सुगन्धिसे भ्रमरोंको आकृष्ट कर रहा है ऐसा यह पानक, जान पड़ता है चन्द्रमाकी किरणोंको दुहकर ही बनाया गया है ।।२०३।। यह घी और दूध तो मानो कामधेनुके स्तनसे ही उत्पन्न हुआ है अन्यथा व्यंजनोंमें रसोंकी ऐसी व्यक्तता कठिन ही है ।।२०४|| पथिकने यह ठीक ही कहा था कि वह सत्पुरुष अणुव्रतोंका धारी है अन्यथा अतिथियोंका ऐसा सत्कार दूसरा कौन करता है ? ॥२०५॥ जो संसारको पीडाको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार करता है उनके सिवाय किसी दूसरेको नमस्कार नहीं करता ऐसा वह बुद्धिमान् शुद्ध आत्माका धारक सुना जाता है ।।२०६।। ऐसे शील और गुणोंसे सहित होनेपर भी यदि यह हम लोगोंके आगे शत्रुसे घिरा रहता है तो हमारा जीवन व्यर्थ है ।।२०७|| यह अपराधसे रहित है, अपने आपको सदा साधुओंकी सेवामें तत्पर रखता है तथा इसके समस्त सामन्त अपने इस अद्वितीय स्वामीके अनुकूल हैं ।।२०८|| दुष्ट राजा सिंहोदरके द्वारा पीड़ित हुए इस वज्रकर्णकी रक्षा करनेके लिए भरत भी समर्थ नहीं है क्योंकि वह अभी नवीन राजा है ।।२०९॥ इसलिए अन्य रक्षकोंसे रहित बुद्धिमान्की रक्षा शीघ्र ही करो, जाओ और सिंहोदरसे कहो ॥२१०॥ 'यह कहना, यह कहना' यह तुम्हें क्या शिक्षा दी जाये क्योंकि जिस प्रकार महामणि प्रभाके साथ उत्पन्न होता है उसी प्रकार तुम भी प्रज्ञाके साथ ही उत्पन्न हुए हो ।।२११।।
अथानन्तर अपने गुणोंकी प्रशंसा सुन जिसे लज्जा उत्पन्न हो रही थी ऐसा लक्ष्मण रामको १. अस्माकम् । २. हर्षान्वितः ।
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