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त्रयस्त्रशत्तमं पर्व
स ग्रावभिः करैर्भानोरतितप्तः समन्ततः । अभ्याख्यानशतैस्तीव्र दुर्जनस्येव सज्जनः ||८५|| अश्वारूढः स तं दृष्ट्वा कृतान्तसमदर्शनः । रत्नप्रभवगम्भीरं परमार्थनिवेशनम् ॥ ८६ ॥ पापघातकरं सर्वभूतकारुण्यसङ्गतम् । कुन्तपाणिरुवाचैवं भूषितं श्रमणश्रिया ॥ ८७ ॥ अत्र किं क्रियते साधो सोऽवोचद्वितमात्मनः । अनाचरितपूर्वं यज्जन्मान्तरशतेष्वपि ॥८८॥ जगाद विहसन् भूभृदनया खल्ववस्थया । न किंचिदपि ते सौख्यं कीदृशं हितमात्मनः ||८९ ॥ मुक्त लावण्यरूपस्य कामार्थरहितस्य च । अचेलस्यासहायस्य कीदृशं हितमात्मनः ॥९०॥ स्नानालंकाररहितैः परपिण्डोपजीविभिः । भवादृशैर्नरैः कीदृक् क्रियते हितमात्मनः ॥११॥ दृष्ट्वा तं कामभोगातं दयावान् संयतोऽवदत् । हितं पृच्छसि किं स्वं मां छिन्नाशापाशबन्धनम् ॥ ९२ ॥ इन्द्रियैर्वञ्चितान् पृच्छ हितोपायबहिष्कृतान् । 'मोहेनात्यन्तवृद्धेन भ्राम्यन्ते ये मवाम्बुधौ ॥९३॥ हन्ता सवसहस्राणामात्मानर्थपरायणः । यात्येष नरकं घोरमवश्यं नष्टचेतनः ॥ ९४ ॥ नूनं त्वया न विज्ञाता घोरा नरकभूमयः । उत्थायोत्थाय पापेषु यस्परां कुरुषे रतिम् ॥ ९५ ॥ पृथिव्यः सन्ति सप्ताधो नरकाणां सुदारुणाः । सुदुर्गन्धाः सुदुष्प्रेक्षाः सुदुस्पर्शाः सुदुस्तराः ॥९६॥ तीक्ष्णास्की संकीर्णा नानायन्त्रसमाकुलाः । क्षुरधाराद्विसंयुक्तास्तप्त लोहतलाधिकाः ॥ ९७ ॥
वाद्यवाक्रान्ता महाध्वान्ता महाभयाः । असिपत्रवनच्छन्ना महाक्षारनदीयुताः ॥९८॥
साधुके ऊपर किसी प्रकारका आवरण नहीं था, वे घाममें बैठकर अपना नियम पूर्ण कर रहे थे, पक्षी के समान निःशंक और सिंहके समान निर्भय थे || ८४ || जिस प्रकार दुर्जनके अत्यन्त तीखे सैकड़ों कुवचनोंसे सज्जन सन्तप्त होता है उसी प्रकार वे साधु भी नीचे पत्थरों और ऊपरसे सूर्यकी किरणोंके द्वारा सब ओरसे सन्तप्त हो रहे थे || ८५ || जो यमराजके समान दिखाई देता था ऐसे वज्रकर्णने घोड़ेपर चढ़े चढ़े, समुद्रके समान गम्भीर, परमार्थके ज्ञाता, पापोंका विनाश करनेवाले, समस्त प्राणियों की दयासे युक्त एवं श्रमण लक्ष्मीसे विभूषित साधुसे भाला हाथमें लेकर कहा ||८६-८७ ।] कि हे साधो ! यह क्या कर रहे हो ? साधुने उत्तर दिया कि जो पिछले सैकड़ों जन्मों में भी नहीं किया जा सका ऐसा आत्माका हित करता हूँ ॥८८॥ राजा वज्रकणंने हँसते हुए कहा कि इस अवस्था में तो तुम्हें कुछ भी सुख नहीं है फिर आत्माका हित कैसा ? || ८९ ॥ जिसका लावण्य और रूप नष्ट हो गया है, जो काम और अर्थसे रहित है, जिसके शरीरपर एक भी वस्त्र नहीं है तथा जिसका कोई भी सहायक नहीं उसका आत्महित केसा ? ||१०|| स्नान तथा अलंकारसे रहित एवं परके द्वारा प्रदत्त भोजनपर निर्भर रहनेवाले आप-जैसे लोगों के द्वारा आत्महित किस प्रकार किया जाता है ? || ११ || कामभोगसे पीड़ित राजा वज्रकर्णको देखकर दयालु मुनिराज बोले कि तू आशापाशरूपी बन्धनको तोड़नेवाले मुझसे हित क्या पूछ रहा है ? उनसे पूछ कि जो इन्द्रियोंके द्वारा ठगे गये हैं, हितके उपायोंसे दूर हैं और अत्यन्त बढ़े हुए मोहसे जो संसार सागर में भ्रमण कर रहे हैं || ९२ - ९३|| यह जो तू हजारों प्राणियोंका घात करनेवाले, आत्मा के अनर्थं करने में तत्पर एवं सद्-असके विचारसे रहित है सो अवश्य ही भयंकर नरक में पड़ेगा ||९४ || जो तू उठ उठकर पापोंमें परम प्रीति कर रहा है सो जान पड़ता है कि तूने भयंकर नरककी पृथिवियोंको अब तक जाना नहीं है ||२५|| इस पृथिवीके नीचे नरकोंकी सात पृथिवियाँ हैं जो अत्यन्त भयंकर हैं, अत्यन्त दुर्गन्धसे युक्त हैं, जिनका देखना अत्यन्त कठिन है, जिनका स्पर्श करना अत्यन्त दुःखदायी है, जिनका पार करना अत्यन्त दुःखकारक है ||९६ || लोहे के तीक्ष्ण काँटोंसे व्याप्त हैं, नाना प्रकारके यन्त्रोंसे युक्त हैं, क्षुराकी धाराके समान पैने पर्वतोंसे युक्त हैं, जिनका तल भाग तपे हुए लोहेसे भी अधिक दुःख-दायी है ||९७|| जो रोरव
१. अभ्याख्यात म. । २. मोदेना म । ३. पाशेषु म. ।
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