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त्रयस्त्रिशत्तमं पर्व प्राग्भारसिंहकर्णस्थजिनबिम्बोपलक्षितान् । प्रासादान् परमोद्यानान् प्रेचलद्धवलध्वजान् ॥५५॥ ग्रामांश्चायतवापीमिः सस्यैश्च कृतवेष्टनान् । नगराणि च गन्धर्वपुरैर्बिभ्रन्ति तुल्यताम् ॥५६॥ दृष्टिगोचरमात्रे तु संनिवेशाः सुभूरयः । दृश्यन्ते न पुनः कश्चिदेकोऽप्यालोक्यते जनः ॥५७॥ समं किं परिवर्गेण विनष्टाः स्युरिह प्रजाः । उपानीताः किमु म्लेच्छैर्वन्दित्वं क्रूरकर्मभिः ॥५४॥ एकस्तु पुरुषाकारो दृश्यते चातिदूरतः । स्थाणुन पुरुषोऽयं तु ननु चैष चलाकृतिः ॥५९।। यात्येप किमुतायाति पश्याम्यागच्छतीत्यम् । तावदायातु मार्गेण जानाम्येनं विशेषतः ॥६०॥ अयं मृग इवोद्विग्नो द्रुतमायाति मानवः । रूक्षोर्द्धमूर्धजो दीनो मलोपहतविग्रहः ॥६॥ कूर्चाच्छादितवक्षस्को वसानश्चीरखण्डकम् । स्फुटिताङघ्रि स्रवत्स्वेदो दर्शयन् पूर्वदुष्कृतम् ॥१२॥ आनयमसितः क्षिप्रमिति पझेन भाषितः । अवतीर्य गतस्तस्य सविस्मय इवान्तिकम् ॥६३॥ दृष्टा तं पुरुषो हृष्टरोमा विस्मयपूरितः । विलम्बितगतिः किंचिदकरोदिति मानसे ॥६४।। समाकम्पित वृक्षोऽयमवतीर्य समागतः । किमिन्द्रो वरुणो दैत्यः किं नागः किन्नरो नरः ॥६५॥ बैवस्वतः शशाङ्को नु वह्निवैश्रवणो नु किम् । भास्करो नु भुवं प्राप्तः कोऽयमुत्तमविग्रहः ॥६६॥ इति ध्यायन् महाभीत्या मुकुलीकृत्य लोचने । निश्चेष्टावयवी भूमौ पपाताव्यक्तचेतनः ॥६॥ उत्तिष्ठोत्तिष्ट भद्र त्वं मा भैषीरिति भाषितः । प्रत्यागततितो लक्ष्मणेनान्तिकं गुरोः ॥६॥
शिखरोंसे सुशोभित हैं, जो उपरितन अग्र भागपर जिन-प्रतिमाओंसे सहित हैं, उत्तमोत्तम बगीचोंसे युक्त हैं तथा जिनपर सफेद ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे जिनमन्दिरोंको देख रहा हूँ ॥५४-५५॥ लम्बी-चौड़ी वापिकाओं तथा धानके हरे-भरे खेतोंसे घिरे गांव और गन्धर्वनगरोंकी तुलना धारण करनेवाले नगर भी दिखाई दे रहे हैं। इस प्रकार बहुत भारी वसतिकाएँ दिखाई दे रही हैं परन्तु उनमें आदमी एक भी नहीं दिखाई देता ॥५६-५७|| क्या यहांकी प्रजा अपने समस्त परिवारके साथ नष्ट हो गयी है अथवा क्रूर कर्म करनेवाले म्लेच्छोंने उसे बन्दी बना लिया है ? ॥५८॥ बहुत दूर, एक पुरुष-जैसा आकार दिखाई देता है जो ठूठ नहीं है पुरुष ही मालूम होता है क्योंकि . उसकी प्रकृति चंचल है ।।५९।। परन्तु यह जा रहा हैं या आ रहा है इसका पता नहीं चलता। कुछ देर तक गौरसे देखनेके बाद लक्ष्मणने कहा कि 'यह आ रहा है' यही जान पड़ता है, अच्छा, मार्गपर आने दो तभी इसे विशेषतासे जान सकूँगा ॥६०|| लक्ष्मणने फिर देखकर कहा कि यह पुरुष मृगके समान भयभीत होकर शीघ्र ही आ रहा है, इसके शिरके बाल रूखे तथा खड़े हैं, दीन है, इसका शरीर मैलसे दूषित है, पसीना झर रहा है और पूर्वोपार्जित पाप कर्मको दिखा रहा है ॥६१-६२।।
रामने लक्ष्मणसे कहा कि इसे शीघ्र ही यहाँ बुलाओ। तब लक्ष्मण नीचे उतरकर आश्चर्यके साथ उसके पास गया ॥६३॥ लक्ष्मणको देखकर उस पुरुषको रोमांच उठ आये। वह आश्चर्यसे भर गया और अपनी गति कुछ धीमी कर मनमें इस प्रकार विचार करने लगा ॥६४|| कि यह जो वृक्षको कम्पित करनेवाला नीचे उतरकर आया है सो क्या इन्द्र है ? या वरुण है ? या दैत्य है ? या नाग है ? या किन्नर है ? या मनुष्य है ? या यम है ? या चन्द्रमा है ? या अग्नि है ? या कुबेर है ? या पृथिवीपर आया सूर्य है ? अथवा उत्तम शरीरका धारी कौन है ? ॥६५-६६।। इस प्रकार विचार करते-करते उसके नेत्र महाभयसे बन्द हो गये, शरीर निश्चेष्ट पड़ गया और वह मूच्छित होकर पृथिवीपर गिर पड़ा ॥६७|| यह देख लक्ष्मणने कहा कि भद्र ! उठ-उठ, डर मत । कुछ देर बाद जब चैतन्य हुआ तब लक्ष्मण उसे रामके पास ले गया ॥६८॥
१. प्रचलच्चलदध्वगान् ब. । २. यमः । ३. ज्येष्ठभ्रातुः ।
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