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पद्मपुराण ततः सौम्याननं राममभिरामं समन्ततः । दृष्ट्वा कान्तिसमुद्रस्थं चक्षुरुत्सवकारिणम् ॥६९।। सीतया शोभितं पार्श्ववर्तिन्यातिविनीतया । मुमोच पुरुषः सद्यः क्षुधादिजपरिश्रमम् ॥७॥ ननाम चाञ्जलिं कृत्वा शिरसा स्पृष्टभूतलः । छायायां मव विश्वस्त इति चोक्त उपाविशत् ॥७१॥ अपृच्छत्तं ततः पद्मः क्षरन्निव गिरामृतम् ।.आगतोऽसि कुतो भद्र को वा किंसंज्ञकोऽपि वा ॥७२॥ सोऽवोचद् दूरतः स्थानाच्छीरगुप्तिः' कुटुम्बिकः । देशोऽयं विजनः कस्मादिति पृष्टोऽवदत् पुनः ।।७३।। सिंहोदर इति ख्यातो देवोऽस्त्युजयिनीपतिः । प्रतापप्रणतोदारसामन्तः सुरसंनिभः ॥७४॥ दशाङ्गपुरनाथोऽस्य वज्रकर्णश्रुतिर्महान् । अत्यन्तदयितो भृत्यः कृतानेकाद्भुतक्रियः ॥७५| मक्त्वा त्रिभुवनाधीशं भगवन्तं जिनाधिपम् । निर्ग्रन्थांश्च नमस्कारं न करोत्यपरस्य सः ॥७६॥ साधुप्रसादतस्तस्य सम्यग्दर्शनमुत्तमम् । पृथिव्यां ख्यातिमायातं देवेन किमु न श्रुतम् ॥७७॥ प्रसादः साधुना तस्य कृतः कथमितीरतः । लक्ष्मीधरकुमारेण पद्माभिप्रायसूरिणा ।।७८॥ उवाच पथिको देव समासात् कथयाम्यहम् । प्रसादः साधुना तस्य यथायमुपपादितः ॥७९॥ अन्यदा वज्रकोऽयं दशारण्यसमाश्रिताम् । प्राविशत् सत्त्वसंपूर्णामटवीं मृगयोद्यतः ॥८॥ जन्मनः प्रभृति क्रूरः ख्यातोऽयं विष्टपेऽखिले । हृषीकवशगो मूढः सदाचारपराङ्मुखः ।।८१॥ लोमसंज्ञासमासक्तः सूक्ष्मतत्त्वान्धचेतनः । भोगोद्भवमहागर्वपिशाचग्रहदूषितः ।।८।। तेन च भ्रमता तत्र कर्णिकारवनान्तरे । दुष्टः शिलातले साधुर्दधानः शममुत्तमम् ॥८३॥ परित्यक्तावृतिीष्मे समाप्तनियमस्थितिः । विहंग इव निश्शङ्कः केसरीव मयोज्झितः ॥४४॥ .
तदनन्तर जिनका मुख सौम्य था, जो सर्व प्रकारसे सुन्दर थे, मानो कान्तिके समुद्रमें ही स्थित थे, नेत्रोंको उत्सव प्रदान करनेवाले थे, और पासमें बैठी हुई अतिशय नम्र सीतासे सुशोभित थे ऐसे रामको देखकर उस पुरुषने क्षुधा आदिसे उत्पन्न हुए श्रमको शीघ्र ही छोड़ दिया ॥६९-७०॥ उसने हाथ जोड़ मस्तकसे भूमिका स्पर्श करते हुए नमस्कार किया तथा 'छाया में विश्राम कर' इस प्रकार कहे जानेपर वह बैठ गया ॥७१।। तदनन्तर रामने वाणीसे मानो अमृत झराते हुए उससे पूछा कि हे भद्र ! तू कहाँसे आ रहा है और तेरा क्या नाम है ? ॥७२॥ उसने कहा कि मैं बहुत दूरसे आ रहा हूँ और सीरगुप्ति मेरा नाम है। 'यह देश मनुष्योंसे रहित क्यों है ?' इस प्रकार रामके पूछनेपर वह पुनः कहने लगा ॥७३॥ कि जिसने अपने प्रतापसे बड़ेबड़े सामन्तोंको नम्रीभूत कर दिया है तथा जो देवोंके समान जान पड़ता है ऐसा सिंहोदर नामसे प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरीका राजा है ।।७४।। दशांगपुरका राजा वज्रकणं जिसने कि अनेक आश्चर्यजनक कार्य किये हैं इसका अत्यन्त प्रिय सेवक है ।।७५।। वह तीन लोकके अधिपति जिनेन्द्रभगवान् और निग्रंन्थ मुनियोंको छोड़कर किसी अन्यको नमस्कार नहीं करता है ॥७६|| 'साधुके प्रसादसे उसका उत्तम सम्यग्दर्शन पृथिवीमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है' यह क्या आपने नहीं सुना ? ॥७७॥ इसी बीचमें रामका अभिप्राय जाननेवाले लक्ष्मणने उससे पूछा कि हे भाई ! साधुने इसपर किस तरह प्रसाद किया है ? सो तो बता ॥७८|| इसके उत्तरमें उस पथिकने कहा कि हे देव ! साधुने जिस तरह इसपर प्रसाद किया यह मैं संक्षेपसे कहता हूँ ॥७९॥ एक समय शिकार खेलने के लिए उद्यत हुआ वज्रकणं दशारण्यपुरके समीपमें स्थित जीवोंसे भरी अटवी में प्रविष्ट हुआ ॥८०॥ यह वज्रकर्ण जन्मसे ही लेकर समस्त संसारमें अत्यन्त क्रूर प्रसिद्ध था, इन्द्रियोंका वशगामी था, मूर्ख था, सदाचारसे विमुख था, लोभ अर्थात् परिग्रह संज्ञामें आसक्त था, सूक्ष्म तत्त्वके विचारसे शून्य था, और भोगोंसे उत्पन्न महागवंरूपी पिशाच ग्रहसे दूषित था ||८१-८२।। उस अटवीमें घूमते हुए उसने कनेर वनके बीच में शिलापर विद्यमान उत्तम शान्तिके धारक एक साधु देखे ।।८३॥ उन
१. क्षीरगुप्ति: म.। हलवाहकः । २. चेतसः म. ।
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