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पद्मपुराणे
उपजातिः
बहुप्रकारैर्मरणैर्जनोऽयं प्रतर्क्यते दुःखसहस्रभागी । 'क्षारार्णवस्येव तटे प्रसुप्तो मत्तोऽतिवेगप्रसृतोर्मिजालैः ॥ १९३॥ विधाय राज्यं धनपापदिग्धो हा कं प्रपत्स्ये नरकं तु घोरम् । शरासिचक्राङ्गनगान्धकारं किं वा नु तिर्यक्त्वमने कयोनिम् ।।१९४|| लब्ध्वापि जैनं समयं यदेतन्मनो मदीयं दुरितानुबद्धम् । करोति नो निस्पृहतामुपेत्य विमुक्तिदक्षं निरगारधर्मम् ॥ १९५॥ एवं च चिन्तां सततं प्रपन्नो दुष्कर्मविध्वंसनहेतुभूताम् । पुराणनिर्ग्रन्थकथाप्रसक्तो ददर्श राजा न रविं न चन्द्रम् ॥ १९६ ॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्य प्रोक्ते पद्मचरिते दशरथरामभरतानां प्रव्रज्यावन प्रस्थान राज्याभिधानं नाम द्वात्रिंशत्तमं पर्व ॥ ३२॥
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अथवा तीक्ष्ण शूलसे मरणको प्राप्त हो जाता है || १९२ || यह प्राणी अनेक प्रकारके मरणोंसे हजारों प्रकार के दुःख भोगता हुआ भी निश्चिन्त बैठा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो कोई मत्त मनुष्य वेगसे फैलनेवाली लहरोंके समूहसे निर्भय हो लवणसमुद्रके तटपर सोया है ॥१९३॥ हाय हाय, मैं राज्यकर तीव्र पापसे लिप्त होता हुआ जहाँ बाण, खड्ग, चक्र आदि शस्त्र तथा शाल्मली आदि वृक्षों और पहाड़ोंके कारण घोर अन्धकार व्याप्त है ऐसे किस भयंकर नरकमें पड़ेगा अथवा अनेक योनियोंसे युक्त तिर्यंच पर्यायको प्राप्त होऊँगा ? || १९४ || मेरा यह मन जैनधर्मको पाकर भी पापोंसे लिप्त हो रहा है तथा निःस्पृहताको प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करानेमें समर्थं मुनिधर्मको धारण नहीं कर रहा है || १९५ || इस प्रकार जो पापकर्मके नाशमें कारणभूत चिन्ताको निरन्तर प्राप्त था तथा जो प्राचीन मुनियों की कथा में सदा लीन रहता था ऐसा राजा भरत न सूर्यकी ओर देखता था न चन्द्रमा की ओर ॥ १९६॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरित में राजा दशरथको दीक्षा, रामका वनगमन और भरत के राज्याभिषेकका वर्णन करनेवाला बत्तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥३२॥
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१. लवणसमुद्रस्येव, क्षीरार्णव- म. । २. कुघोरं म । ३. न्मदान्मदीयं म. ।
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