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त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व
ततो जनोपभोग्यानां प्रदेशानां समीपतः । रमणीयान् परिप्राप पनस्तापससंश्रयान् ॥१॥ तापसा जटिलास्तत्र नानावल्कलधारिणः । सुस्वादुफलसंपूर्णाः पादपा इव भूरयः ॥२॥ विशालपत्रसन्छन्ना मठकाः सविततर्दिकाः । पलाशोदुम्बरैधानां पूलिकाभिर्युताः क्वचित् ॥३॥ अकृष्टपच्यबीजेन शुष्यता पूरिताङ्गणाः । वर्तयद्भिः सुविश्रब्धैः रोमन्थं राजिता मृगैः ॥४॥ सजटैर्वटुमिर्युक्ता रटद्भिः सततं पटु । ललितोच्छ्रितपुच्छेण तार्णकेन कृताजिराः ॥५॥ पठनिर्विशदं युक्ताः शारिकाशुककौशिकः । वीरुधां पुष्परम्याणां छायासु समवस्थितैः ॥६॥ कन्यामिर्घटकैः स्वादु वारिणा भ्रातृतेक्षितैः । पूर्णालबालकैर्बालस्तरुभि: कृतराजनाः ॥७॥ फलैर्बहुविधैः पुष्पैर्वासितैः स्वादुवारिमिः । सादरैः स्वागतस्वानः सार्घदानैस्तथाशनैः ॥४॥ संभाषणः कुटीदानैः शयनैर्मृदुपल्लवैः । तापसैरुपचारैस्ते पूजिता श्रमहारिभिः ॥९॥ आतिथेयाः स्वभावेन ते हि सर्वत्र तापसाः। रूपेष्वेवं प्रकारेषु विशेषेण सुवृत्तयः ॥१०॥ उषित्वा गच्छतां तेषां ययुर्मागण तापसाः । पाषाणानपि तद्रपं द्रवीकुर्यात् किमन शुष्कपत्राशिनस्तत्र तापसा वायुपायिनः । सीतारूपहृतस्वान्तो तिं दूरेण तत्यजुः ॥१२॥
अथानन्तर राम मनुष्योंके उपभोगके योग्य स्थानोंसे हटकर तपस्वियोंके सुन्दर आश्रममें पहुँचे। वहाँ वृक्षोंके समान जटिल अर्थात् जटाधारी (पक्षमें जड़ोंसे युक्त ), नाना प्रकारके वल्कलोंको धारण करनेवाले और स्वादिष्ट फलोंसे युक्त बहुत-से तापस रहते थे ॥१-२॥ उस आश्रम में अनेक मठ बने हुए थे जो विशाल पत्तोंसे छाये थे। सबके आगे बैठनेके लिए चबूतरे थे, जो एक ओर कहीं रखी हुई पलाश तथा ऊमरकी लकड़ियोंकी गड्डियोंसे सहित थे ॥३॥ बिना जोते बोये अपने-आप उत्पन्न होनेवाले धान उनके आँगनोंमें सूख रहे थे तथा निश्चिन्ततासे रोमन्थ करते हुए हरिणोंसे वे सुशोभित थे ॥४॥ निरन्तर जोर-जोरसे रटनेवाले जटाधारी बालकोंसे युक्त गायोंके बछड़े अपनी सुन्दर पूंछ ऊपर उठाकर उन मठोंके आंगनोंमें चौकड़ियां भर रहे थे ॥५॥ फूलोंसे सुन्दर लताओंकी छायामें बैठकर स्पष्ट उच्चारण करनेवाले तोता, मैना तथा उलूक आदि पक्षियोंसे वे मठ सहित थे ॥६॥ कन्याओंने भाई समझकर घड़ों द्वारा मधुर जलसे जिनकी क्यारियाँ भर दी थीं ऐसे छोटे-छोटे वृक्ष उन मठोंकी शोभा बढ़ा रहे थे ।।७। उन तपस्वियोंने नाना प्रकार
रके मधर फल. सगन्धित पुष्प. मीठा जल. आदरसे भरे स्वागतके शब्द. अर्घके साथ दिये गये भोजन, मधुर सम्भाषण, कुटीका दान और कोमल पत्तोंकी शय्या आदि थकावटको दूर करनेवाले उपचारसे उनका बहुत सम्मान किया ।।८-९।। तापस लोग स्वभावसे ही सर्वत्र अतिथिसत्कार करने में निपुण थे फिर इस प्रकारके सुन्दर पुरुषोंके मिलनेपर तो उनका वह गुण और भी अधिक प्रकट हो गया था ॥१०॥ राम-लक्ष्मण वहाँ बसकर जब आगे जाने लगे तब वे तापस उनके मार्गमें आ गये सो ठीक ही है क्योंकि उनका रूप पाषाणोंको भी द्रवीभूत कर देता था फिर औरोंकी तो बात ही क्या थी ? ॥११॥ उस आश्रममें जो तापस रहते थे उन्होंने सुन्दर रूप कहां देखा था? वे सूखे पत्ते खाकर तथा वायुका पान कर जीवन बिताते थे इसलिए सीताका रूप देखते ही
१. वितर्दिकासहिताः । २. अकृष्टपच्यमानेन म.। ३. बालस्तरुभिः म. । ४. कृतराजन: म. । ५. अतिथिषु साधवः ।
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