________________
द्वात्रिंशत्तम पर्व इति 'निर्वृहदेशेषु मण्डपेषु च कामिनाम् । शृण्वन्तौ वीक्षमाणौ च वृत्तान्तं जग्मतुः शनैः ॥१३॥ अवद्वारेण निर्गत्य पुरीतः पश्चिमेन तौ। आश्रितो मार्गयोगेन दक्षिणी दक्षिणां दिशम् ॥१४॥ त्रियामान्ते ततोऽस्पष्टे सामन्ता वेगवाहिनः । राघवेण समं गन्तुमुत्सुका भक्तिनिर्भराः ॥१५॥ यथाश्रुति परिज्ञाय बन्धुवञ्चनकारिणः । समीपं रामदेवस्य प्रापुर्मन्थरगामिनः ॥१६॥ ते चक्षुर्गोचरीकृस्य समेतौ रामलक्ष्मणौ । महाविनयसंपन्नाः पद्भ्यामेव डुढौकिरे ॥१७॥ प्रणिपत्य च भावेन सक्रम संबभाषिरे । यावत्तावन्महासैन्यं तद्गवेषार्थमाययौ ॥१८॥ प्रशशंसुश्च ते सीतामिति निर्मलचेतसः । वयमस्याः प्रसादेन राजपुत्रौ समागताः ॥१९॥ अयास्यद्यदि नैताभ्यां सममेषा सुमन्थरा । ततः कथमिव प्राप्स्यामेतौ पवनरंहसौ ॥२०॥ इयं नः सुसती माता परमप्रियकारिणी । एतस्याः सदृशी नान्या प्रशस्तास्ति क्षिताविह ॥२१॥ तौ सीतागतिचिन्तस्वान्मन्दमन्दं नरोत्तमौ । गव्यूतिमात्रमध्वानं सुखयोगेन जग्मतुः ॥२२॥ सस्यानि बहरूपाणि पश्यन्ती क्षितिमण्डले । सरांसि करम्याणि तरूंश्च गगनस्पृशः ॥२३॥ आपूर्यमाणपर्यन्तौ वेगवद्भिर्नराधिपैः । घनागमे नदैर्गङ्गाकालिन्दीप्रवहाविव ॥२४॥ ग्रामखेटमटम्बेषु घोषेषु नगरेषु च । लोकेन पूजितौ वीरौ मोजनादिभिरुत्तमौ ॥२५।। केचिदध्वजखेदेन सामन्ता व्रजतोस्तयोः । पश्चादज्ञापयित्वैव निवृत्ता ज्ञातनिश्चयाः ॥२६॥
भी पैरकी आहट सुनकर अत्यधिक भयको प्राप्त हो रहा है ।।१२।। इस प्रकार बाह्य झरोखों और मण्डपोंमें कामीजनोंको देखते तथा उनके वृत्तान्तको सुनते हए राम और लक्ष्मण धीरे-धीरे जा रहे थे ॥१३।। वे अतिशय सरल थे और वे नगरीके पश्चिम द्वारसे बाहर निकलकर आगे मिलनेवाले मार्गसे दक्षिण दिशाकी ओर चले गये ॥१४॥
इधर जब भक्तिसे भरे तथा रामके साथ जानेके लिए उत्सुक सामन्तोंको कानोंकान यह पता चला कि राम तो बन्धुजनोंको धोखा देकर चले गये हैं तब वे प्रातःकाल होनेके पूर्व जब कुछ-कुछ अँधेरा था वेगसे घोड़े दौड़ाकर मन्थर गतिसे चलनेवाले रामके पास जा पहुँचे ।।१५-१६|| जब उन्हें साथ-साथ चलनेवाले राम-लक्ष्मण नेत्रोंसे दिखने लगे तब वे महाविनयसे युक्त हो पैदल ही चलने लगे ॥१७॥ सामन्त लोग भावपूर्वक प्रणाम कर जबतक उनके साथ यथाक्रमसे वार्तालाप करते हैं तबतक उन्हें खोजनेके लिए बड़ी भारी सेना वहां आ पहुंची ॥१८॥ अत्यन्त निर्मल चित्तके धारक सामन्त लोग सीताकी इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हम लोग इसके प्रसादसे ही राजपुत्रोंको प्राप्त कर सके हैं ।।१९।। यदि यह इनके साथ धीरे-धीरे नहीं चलती तो हम पवनके समान वेगशाली राजपुत्रोंको किस तरह प्राप्त कर सकते ? ॥२०॥ यह माता अत्यन्त सती तथा हम सबका बहुत भारी भला करनेवाली है। इस पृथिवीपर इसके समान दूसरी पवित्र स्त्री नहीं है ॥२१॥ मनुष्योंमें उत्तम राम लक्ष्मण सीताकी गतिका ध्यान कर गव्यूति प्रमाण मार्गको ही सुखसे तय कर पाते थे ॥२२॥ वे पृथिवीमण्डलपर नाना प्रकारके धान, कमलोंसे सुशोभित तालाब और गगनचुम्बी वृक्षोंको देखते हुए जा रहे थे ।।२३॥ जिस प्रकार वर्षाऋतुमें गंगा और यमुनाके प्रवाह अनेक नदियोंसे मिलते रहते हैं उसी प्रकार राम-लक्ष्मणके पर्यन्त भाग भी अनेक वेगशाली राजाओंसे मिलते रहते थे ॥२४॥ ग्राम, खेट, मटम्ब, घोष तथा नगरोंमें लोग उन उत्तम वीरोंका भोजनादि सामग्रीके द्वारा सत्कार करते थे ।।२५।। दोनों ही भाई आगे बढ़ रहे थे, और सामन्त लोग मागंके खेदसे दुःखी हो रहे थे। जब उन्हें इस बातका दृढ़ ज्ञान हो गया कि राम-लक्ष्मण लोटनेवाले नहीं हैं तब वे उनसे कहे बिना ही लौट गये ॥२६॥ भक्तिमें तत्पर रहनेवाले कितने १. गवाक्षप्रदेशेषु । २. वीक्ष्यमाणो म.। ३. वृत्तान्तो म. । ४. लघुना द्वारेण, अपहारेण (?) म. । ५. वेगवन्निर्जराधिपः म.। ६. घनागमे नदी गंगा म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org