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द्वात्रिंशत्तमं पत्र
अशुचेः कायतोऽन्योऽहं द्वारमक्षाणि कर्मणाम् । संवरो कारणं तेषां निर्जरा जायते ततः ॥ ९७ ॥ लोको विचित्ररूपोऽयं दुर्लभा वोधिरुत्तमा । स्वाख्यातोऽयं जिनैर्धर्मः कृच्छ्रेणाधिगतो मया ॥९८ ॥ ध्यानेन मुनिदृष्टेन विशुद्धेनैवसादिना । आर्तध्यानमसौ धीरः क्रमेण निरनीनशत् ॥ ९९ ॥ येच्छ्रिततिच्छत्र वरस्तम्बेरमाश्रितः । महाजिषु पराजिग्ये शत्रूनत्यन्तमुद्धतान् ॥ १०० ॥ विषमाधिकुर्वाणः परीषहगणान् भृशम् । शान्तस्तेष्वेव देशेषु निर्ग्रन्थो विजहार सः ॥१०१॥ नाथे तथा स्थिते तस्मिन् विदेशे व गलेऽङ्गजे । परं सुमित्रया सत्रा शोकं भेजेऽपराजिता ॥ १०२ ॥ ते दृष्ट्वा दुःखिते वाढमजस्रास्रुतलोचने' | 'मरतामां श्रियं मेने भरतो विषदारुणाम् ॥ ११३ ॥ अथैवं दुःखमापन्ने भृशं ते वीक्ष्य केकया । पश्चादुत्पन्नकारुण्यात् पुत्रमेवमभाषत ॥ १०४ ॥ पुत्र राज्यं त्वया लब्धं प्रणताखिलराजकम् । पद्मलक्ष्मणनिर्मुक्तमलमेतन्न शोभते ॥ १०५ ॥ विना ताभ्यां विनीताभ्यां किं राज्यं का सुखासिका । का वा जनपदे शोभा तव का वा सुवृत्ता ॥ १०६ ॥ राजपुत्र्या समं बालौ क तौ यातां सुखैधितो । विमुक्तवाहनौ मार्गे पाषाणादिभिराकुले ॥ १०७॥ मातरौ दुःखिते एते तयोर्गुणसमुद्रयोः । विरहे मापतां मृत्युमजस्त्रपरिदेवते ॥ १०८ ॥
तस्मादानय तौ क्षिप्रं समं ताभ्यां महासुखः । सुचिरं पालय क्षोणीमेवं सर्व विराजते ॥ १०९ ॥ ब्रज तावत्त्वमारुह्य तुरङ्गं जातरंहसम् । आव्रजाम्यहमप्येषा सुपुत्रानुपदं तव ॥ ११० ॥ इत्युक्तो धृतिमासाद्य साध्वेवमिति सस्वनः । संभ्रान्तोऽश्वसहस्रेण भरतस्तत्पथं श्रितः ॥ १११ ॥
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है, यह संसार चतुर्गति रूप है, मैं अकेला ही दुःख भोगता हूँ, यह शरीर अशुचि है तथा उससे में पृथक् हूँ, इन्द्रियाँ कर्मों के आनेका द्वार हैं, कर्मोंको रोक देना संवर है, संवरके बाद कर्मोकी निर्जरा होती है, यह लोक विचित्र रूप है, उत्तम रत्नत्रयकी प्राप्ति होना दुर्लभ है, और जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ यह धर्म मैंने बड़े कष्टसे पाया है ।।९६-९८ || इस प्रकार मुनियों के द्वारा अनुभूत विशुद्ध ध्यानसे धीरवीर दशरथ मुनिने क्रमसे पूर्वोक्त आर्तध्यानको नष्ट कर दिया ||१९|| जिनके ऊपर सफेद छत्र फिर रहा था तथा जो उत्तम हाथीपर सवार थे ऐसे राजा दशरथने पहले जिन देशों में महायुद्धों के बीच अत्यन्त उद्धत शत्रुओं को जीता था अब उन्हीं देशोंमें वे अत्यन्त शान्त निर्ग्रन्थ मुनि होकर विषम परिषहोंको सहते हुए विहार कर रहे थे ||१००-१०१॥
तदनन्तर पतिके मुनि हो जाने और पुत्रके विदेश चले जानेपर अपराजिता ( कौशल्या ) सुमित्रा के साथ परम शोकको प्राप्त हुई ||१०२|| जिनके नेत्रोंसे निरन्तर अश्रु झरते थे ऐसी दोनों विमाताओं को दुःखी देखकर भरत, भरत चक्रवर्तीको लक्ष्मी के समान विशाल राज्यलक्ष्मीको विष के समान दारुण मानता था || १०३ ॥ अथानन्तर इस तरह उन्हें अत्यन्त दुखी देख केकयीके मनमें दया उत्पन्न हुई जिससे प्रेरित होकर उसने अपने पुत्र भरतसे इस प्रकार कहा कि हे पुत्र यद्यपि तूने जिसमें समस्त राजा नम्रीभूत हैं ऐसा राज्य प्राप्त किया है तथापि वह राम और लक्ष्मणके बिना शोभा नहीं देता है || १०४ - १०५ ॥ नियमसे भरे हुए उन दोनों भाइयोंके बिना राज्य क्या है ? देशको शोभा क्या है ? और तेरी धर्मज्ञता क्या है ? || १०६ ॥ सुखपूर्वक वृद्धिको प्राप्त हुए दोनों बालक, बिना किसी वाहनके पाषाण आदि विषम मार्ग में राजकुमारी सीताके साथ कहीं भटकते होंगे ? ॥ १०७॥ गुणों के सागरस्वरूप उन दोनोंकी ये माताएँ अत्यन्त दुःखी हैं, निरन्तर विलाप करती रहती हैं सो उनके विरह में मृत्युको प्राप्त न हो जावें ||१०८ || इसलिए तू शीघ्र ही उन दोनोंको वापस ले आ । उन्हीं के साथ सुखपूर्वक चिरकाल तक पृथिवीका पालन कर । ऐसा करने से ही सबकी शोभा होगी || १०९ || हे सुपुत्र ! तू वेगशाली घोड़ेपर सवार होकर जा और मैं भी तेरे पीछे ही आती हूँ ॥ ११०॥ माताके इस प्रकार कहनेपर भरत बहुत प्रसन्न
१. - मजस्रास्त्रितलोचने म । २. भरताभिश्रियं म । ३ नापतां ज. ।
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