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पद्मपुराणे अनन्यजन्नसु ये दारा पितृभ्रातृसुतादयः । क गतास्ते ममानादौ संसारे गणनोज्झिताः ॥८॥ अनेकशो मया प्राप्ता विविधा विषया दिवि । नरकानलदाहाश्च संप्राप्ता भोगहेतवः ॥४५॥ अन्योन्यभक्षणादीनि तिर्यक्त्वे च चिरं मया । प्राप्तानि दुःखशल्यानि बहुरूपासु योनिषु ॥८६॥ श्रुताः सङ्गीतनिस्वाना वंशवीणानुगामिनः । भूयश्च परमाक्रन्दाश्चित्तदारणकारिणः ॥८७॥ स्तनेष्वप्सरसां पाणिर्लालितो नेत्रहारिषु । पुनः कुठारघातेन दुर्वृत्तेन पृथक्कृतिः ॥१८॥ आस्वादितं महावीरीमन्नं सुरभि षडरसम् । पुसीसादिकललं पुनश्च नरकावनौ ॥८९॥ वीक्षितं परमरूपं सनोदवणकारणम् । पुनश्चात्यन्तवित्रासकारणं दत्तवेपथु ॥२०॥ आघ्रातः ए चिरामोदो गन्धो मुदितषट्पदः । पुनश्व पूतिरस्यन्तमुद्वासितमहाजनः ॥९१॥ आशिङ्गिता मनश्चोर्यो नार्यों लीलाविभूषणाः । पुनश्च कूटशाल्मल्यः तीक्ष्णकण्टकसङ्कटाः ॥१२॥ किं न स्पृष्टं न किं दृष्टं किं न नातं न किं श्रुतम् । महरास्वादितं किं न भवे दासेन कर्मणाम् ॥१३॥ न सा क्षितिर्न तत्तोयं नासौ वह्निर्न सोऽनिलः । देहतां तो न मे प्राप्तो भवे संक्रामतश्विरम् ॥१४॥ त्रैलोक्ये सन जीवोऽस्ति यो न प्राप्तः सहस्रशः । पित्रादितां मम स्थानं न तद्यत्रोषितोऽस्मि न ॥२५॥ अध्रवं देहमोगादिशरणं नास्ति विद्यते । संसारोऽयं चतु:स्थान एकोऽहं दुःखमुक्ति ॥१६॥
योगारूढ़ होकर बुद्धिमान् दशरथ विचार करने लगे कि संसार सम्बन्धी दुःखोंका मूल कारण तथा मुझे बन्धनमें डालनेवाले स्नेहको धिक्कार है ।।८३।। अन्य जन्मोंमें जो मेरे स्त्री, पिता, भाई तथा पुत्र आदि सम्बन्धी थे वे सब कहाँ गये ? यथार्थमें इस अनादि संसारमें सभी सम्बन्धी इतने हो चुके हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती ।।८४।। मैंने अनेकों बार स्वर्ग में नाना प्रकारके विषय प्राप्त किये हैं और भोगोंके निमित्त नरकाग्निके सन्ताप भी सहन किये हैं ।।८५।। तिर्यंच पर्याय में मैंने चिरकाल तक परस्पर एक दूसरेका खाया जाना आदि दुःख उठाये हैं। इस प्रकार नाना योनियोंमें मैंने दुःखरूपी अनेक शल्य प्राप्त किये ॥८६॥ मैंने बांसुरी, वीणा आदि मधुर बाजोंका अनुगमन करनेवाले संगीतके शब्द सुने हैं और हृदयको विदारण करनेवाले तीव्र रुदनके शब्द भी अनेक बार श्रवण किये हैं ॥८७॥ मैंने अपना हाथ अप्सराओंके सुन्दर स्तनोंपर लड़ाया है और कभी कुठारकी तीक्ष्ण धारासे उसके टुकड़े-टुकड़े भी किये हैं ।।८८|| मैंने महाशक्ति वर्धक, सुगन्धित छह रसोंसे युक्त आहार ग्रहण किया है और नरककी भूमिमें राँगा, सीसा आदिका कलल भी बार-बार पिया है ।।८९|| मनको द्रवीभूत करनेवाला अत्यन्त सुन्दर रूप देखा है और अत्यन्त भयका कारण तथा कम्पन उत्पन्न करनेवाला घृणित रूप भी अनेक बार देखा है ।।९०॥ जिसकी सुवास चिरकाल तक स्थित रहती है ऐसा भ्रमरोंको आनन्दित करनेवाला मनोहर गन्ध सूंघा है और जिसे देखते ही महाजन दूर हट जाते हैं ऐसा तीव्र दुर्गन्ध उत्पन्न करनेवाला सड़ा कलेवर भी बार-बार सूंघा है ।।९१॥ मनको चुरानेवाली तथा लीलारूपी आभूषणोंसे सुशोभित स्त्रियोंका आलिंगन किया है और तीक्ष्ण काँटोंसे व्याप्त सेमरके मायामयी वृक्षोंका भी बार-बार आलिंगन किया है ।।९२॥ कर्मोका दास बनकर मैंने इस संसारमें क्या नहीं किया है ? क्या नहीं देखा है ? क्या नहीं सूंघा है ? क्या नहीं सुना है ? और बार-बार क्या नहीं खाया है ? ||९३।। न वह पथिवी है, न वह जल है, न वह अग्नि है और न वह वायु है जो चिरकालसे संसारमें भ्रमण करते हुए मेरी शरीर-दशाको प्राप्त नहीं हुआ है ॥९४|| तीनों लोकोंमें वह जीव नहीं है जो हजारों बार मेरा पिता आदि नहीं हुआ हो और वह स्थान भी नहीं है जहाँ मैंने निवास नहीं किया हो ॥९५|| शरीर भोग आदि अनित्य है, कोई किसीका शरण नहीं
१. वंशवीणा तु गायिनः (?) म. ! Jain Education International
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