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पद्मपुराणे
तदातिशोभते सीता पद्महस्ततलस्थिता । सुधीरा श्रीरिवोत्तुङ्गशतपत्रगृहस्थिता ॥५५॥ पारगः सीतया सार्धं लक्ष्मणेन च स क्षणात् । वृक्षैरन्तर्धिमायातश्चेतस्तम्भनविग्रहः ||५६ || विप्रलापं ततः कृत्वा महान्तं साश्रुलोचनाः । भवनाभिमुखीभूताः केचित्कृच्छ्र ेण भूभृतः ॥५७॥ तदाशान्यस्तनेास्तु केचित्पु स्तमया इव । तस्थुः प्राप्यापरे मूर्छा निपेतुर्धरणीतले ||१८|| विबोध्य केचिदत्रोचुर्धिक संसारमसारकम् । धिग्भोगान्भोगिंभोगाभान् भङ्गुरान्भीतिभाविनः ||५९ ॥ ईदृशामपि शूराणां यत्रावस्थेयमीदृशी । तत्र ग्रहणमस्मासु किमेरण्डप्रफल्गुषु ॥ ६० ॥ वियोगमरणव्याधिजराज्यसनभाजनम् । जनबुद्बुदनिस्सारं कृतघ्नं धिक् शरीरकम् ॥ ६१ ॥ भाग्ववन्तो महासत्त्वास्ते नराः श्लाघ्यचेष्टिताः । कविभ्रूभङ्गुरां लक्ष्मीं ये तिरस्कृत्य दीक्षिताः ॥ ६२ ॥ इति निर्वेदमापन्ना बहवो नरसत्तमाः । प्रव्रज्याभिमुखीभूता बभ्रमुस्तत्र रोधसि ॥ ६३ ॥ अथेक्षांचक्रिरे तुङ्गं विशालं शुभमालयम् । परिवीतमतिश्याममहानोकह मालया ॥ ६४ ॥ अनुसस्रुश्च तं नानापुष्पजातिसमाकुलम् । मकरन्दरसास्वादगुञ्जत्संभ्रान्तषट्पदम् ॥ ६५॥ ददृशुश्च विविक्तेषु देशेषु समवस्थितान् । साधून् स्वाध्यायसंसक्तमानसान् पुरुतेजसः || ६६ || क्रमेण तान्नमस्यन्तः शनैर्मस्तकपाणयः । विविशुर्जिननाथस्य भवनं भृशमुज्ज्वलम् ॥ ६७ ॥ रम्येष्वद्विनितम्बेषु काननेषु सख्तुि च । तत्र काले मही प्रायो भूषितासीजिनालयैः ॥ ६८ ॥
-क्रीड़ा के ज्ञान में निपुण थे अतः चिरकाल तक उत्तम क्रीड़ा करते हुए जा रहे थे । उनके लिए वह नदी नाभि प्रमाण गहरी हो गयी थी || ५४ || उस समय रामकी हथेलीपर स्थित धेयंशालिनी सीता ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो ऊँचे उठे हुए कमलरूपी घरमें स्थित लक्ष्मी ही हो ||५५ || इस प्रकार जिनका शरीर चित्तको रोकनेवाला था ऐसे राम सीता और लक्ष्मणके साथ नदीको पार कर क्षण भरमें वृक्षोंसे अन्तर्हित हो गये || ५६॥
तदनन्तर जिनके नेत्रोंसे आँसू झर रहे थे ऐसे कितने ही राजा बहुत भारी विलाप कर अपने भवनकी ओर उन्मुख हुए ||५७|| कितने ही लोग उसी दिशा में नेत्र लगाये हुए मिट्टी आदि पुतलोंके समान खड़े रहे । कितने ही मूच्छित होकर पृथिवीपर गिर पड़े || ५८ || और कितने
बोधको प्राप्त होकर कहने लगे कि इस असार संसारको धिक्कार है तथा सांपके शरीरके समान भय उत्पन्न करनेवाले नश्वर भोगोंको धिक्कार है ||१९|| जहाँ इन जैसे शूर वीरोंकी भी यह अवस्था है वहाँ एरण्डके समान निःसार हम लोगोंकी तो गिनती हो क्या है ? ||६०|| वियोग, मरण, व्याधि और जरा आदि अनेक कष्टोंके पात्र तथा जलके बबूलेके समान निःसार इस कृतघ्न शरीरको धिक्कार है || ६१ || उत्तम चेष्टाके धारक जो मनुष्य वानरकी भौंहके समान चंचल लक्ष्मीको छोड़कर दीक्षित हो गये हैं वे महाशक्तिके धारक भाग्यवान् हैं ||६२|| इस प्रकार वैराग्यको प्राप्त हुए अनेक उत्तम मनुष्य दीक्षा लेनेके सम्मुख हो नदी के उसी तटपर घूमने लगे ॥ ६३ ॥
तदनन्तर उन्होंने हरे-भरे वृक्षोंकी पंक्तिसे घिरा हुआ एक ऊँचा, विशाल तथा शुभ मन्दिर देखा || ६४ || मन्दिरका वह स्थान नाना प्रकारके पुष्पोंकी जातियोंसे व्याप्त था तथा मकरन्द रसके आस्वादसे गूँजते हुए भ्रमर वहाँ भ्रमण कर रहे थे || ६५ || उन लोगोंने वहाँ एकान्त स्थानों में बैठे हुए, स्वाध्यायमें लीन तथा विशाल तेजके धारक मुनियोंको देखा || ६६|| मस्तकपर अंजलि बांधकर सब लोगोंने उन्हें धीरे-धीरे यथाक्रमसे नमस्कार किया । तदनन्तर अत्यन्त उज्ज्वल जिनमन्दिर में प्रवेश किया ||६७ || उस समय भूमि प्रायः कर पर्वतों के सुन्दर नितम्बों पर, वनोंमें तथा नदियोंके तटोंपर बने हुए जिनमन्दिरोंसे विभूषित थी ॥ ६८ ।। १. मृदादिनिमिता इव । २. सर्पफणासदृशान् । ३. विवेकेषु म ।
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