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पद्मपुराणे
अपरे त्रपया केचिद्भीत्यान्ये भक्तितत्पराः । अत्रजन् विनयात् पद्भ्यां दत्वा दुःखस्य मानसम् ॥२७॥ ततो हरिगजव्रातसङ्कुलारावभैरवाम् । 'परियात्रारवीं प्राप्तौ लीलया रामलक्ष्मणौ ॥२८॥ तस्यां बहुलशर्वर्यां तुल्यध्वान्तां महानगैः । निम्नगां शर्वरीमेतौ शवराश्रितरोधसाम् ॥२९॥ तस्या रोधसि विश्रम्य नानास्वादुफलोचिते । 'कांश्चिन्न्यवर्तयद्भूपान् पद्मः सुप्रतिबोधनः ॥३०॥ महतापि प्रयत्नेन निवृत्ता नापरे नृपाः । पद्मेन सहितं गन्तुं किल सञ्जातनिश्चयाः ॥३१ ॥ गतस्ते निम्नगां दृष्ट्वा महानीलावभासिनीम् । चण्डवेगोर्मिसंघातनिर्मितोदरनिश्चिताम् ॥३२॥ उन्मज्जत्प्रबलग्राहकृतकल्लोलसङ्कुलाम् । वीचीमालासमाघातनिपतन्मृदुरोधसम् ॥३३॥ महाद्विकन्दरास्फाल प्रतिसूत्कारनादिनीम् । उद्वर्तमानमीनाङ्गस्फुरद्भास्कररोचिषम् ॥३४॥ उद्वृत्तनक्रसूत्कारजातदूरगशीकराम् । उड्डीयमाननिश्शेष भयपूर्ण पतत्रगाम् ॥३५॥ संत्रासकम्पमानाङ्गा जगू · रामं सलक्ष्मणम् । समुत्तारय नाथास्मानपि पद्मप्रसादवान् ॥३६॥ भृत्यानां भक्तिपूर्णानां प्रसादं कुरु लक्ष्मण । देवि ते कुरुते वाक्यं जानकि ब्रूहि लक्ष्मणम् ॥३७॥ एवमादि गदन्तस्ते कृपणा बहु तां नदीम् । डुढौकिरे प्रसस्रुश्च नानाचेष्टाविधायिनः ॥ ३८ ॥ ततस्तान् राघवोऽवोचद्विश्रब्धो रोधसि स्थितः । अधुना विनिवर्तध्वं भद्रा भीममिदं वनम् ||३९|| अस्माभिः सह युष्माकमियानेवैषै सङ्गमः । एषा नद्यवधिर्जाता भवतौत्सुक्य वर्जिता ॥ ४० ॥
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ही सामन्त लज्जासे और कितने ही भयसे अपने मनको दुःखी कर विनयपूर्वक उनके साथ पैदल चल रहे थे ||२७||
तदनन्तर राम-लक्ष्मण लीलापूर्वक परियात्रा नामकी उस अटवीमें पहुँचे जो कि सिंह और हस्तिसमूहके उच्च शब्दोंसे भयंकर हो रही थी ||२८|| उस अटवी में बड़े-बड़े वृक्षोंसे कृष्णपक्षकी निशाके समान घोर अन्धकार व्याप्त था । वहीं, जिसके किनारे अनेक शबर अर्थात् भील रहते थे ऐसी एक शर्वरी नामकी नदी थी। राम लक्ष्मण वहाँ पहुँचे ||२९|| नाना प्रकारके मधुर फलोंसे युक्त उस नदी के तटपर विश्राम कर रामने समझा-बुझाकर कितने ही राजाओंको तो वापस लौटा दिया ||३०|| पर जिन्होंने रामके साथ जानेका निश्चय ही कर लिया था ऐसे अन्य अनेक राजा बहुत भारी प्रयत्न करनेपर भी नहीं लौटे ||३१॥
तदनन्तर जो नदी महानील मणिके समान सुशोभित हो रही थी, अत्यन्त वेगशाली लहरों के समूहसे जिसका मध्य भाग व्याप्त था, जो उखरते हुए बलवान् मगरमच्छोंकी टक्कर से उत्पन्न होनेवाली तरंगोंसे व्याप्त थीं, लहरोंके समूहके आघातपर जिसके कोमल किनारे उसीमें टूट-टूटकर गिर रहे थे, बड़े-बड़े पर्वतोंकी गुफाओंमें टकरानेसे जिसमें 'सू-सू' शब्द हो रहा था, जिसमें ऊपर तैरनेवाली मछलियोंके शरीर में सूर्यकी किरणें प्रतिबिम्बित हो रही थीं, जिसमें उत्पात करनेवाले नाकोंकी सुत्कारसे जलके छींटे दूर-दूर तक उड़ रहे थे, और जिसके पाससे समस्त पक्षी भयभीत होकर उड़ गये थे ऐसी उस नदीको देखकर सब सामन्तोंके शरीर भयसे काँपने लगे । वे लक्ष्मण सहित रामसे बोले कि 'हे नाथ ! हम लोगों को भी नदीसे पार उतारो। हे पद्म ! प्रसन्न होओ, हे लक्ष्मण ! भक्ति से भरे हुए हम सेवकोंपर प्रसन्नता करो। हे देवि ! लक्ष्मण तुम्हारी बात मानते हैं इसलिए इनसे कह दो || ३२ - ३७॥ इत्यादि अनेक शब्दोंका उच्चारण करते हुए वे दीन सामन्त उस नदीमें कूद पड़े तथा नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करते हुए बहने लगे ||३८|| तब किनारेपर निश्चिन्ततासे खड़े हुए रामने उन सबसे कहा कि हे भले पुरुषो! अब तुम लौट जाओ। यह वन बहुत भयंकर है ||३९|| हम लोगोंके साथ तुम्हारा
१. एतन्नामाटवीं । २. कांश्चित्प्रावर्तयद् म. । ३ महीन्द्र म । ४. प्रान्ते सूत्कार म । ५. मियानेषैव म. ।
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